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और क्षमा की दृष्टि से देखे गये। इस धर्म का यहाँ तक बोलबाला हुआ कि धर्म के नाम से ऐसी बहुत सी चीज़े बेची जाने लगीं जिनका धर्म से कोई सम्बन्ध न था। नदियों में स्नान करना धर्म, चिउंटियों और कीड़ों को खाने को देना धर्म, कपड़ा पहनना धर्म, गरज—चलना, फिरना, उठना, बैठना, सभी में धर्म का असर घुसड़ गया।

इस नकली, झूठे और निकम्मे धर्म का भाव भी बहुत ऊंचा चढ़कर उतरा। रोम के पोप मरने वालों से उनके पाप स्वीकृत करके स्वर्ग के नाम हुण्डी लिखाते थे। लाखों रुपये हड़प लेते थे। गया के पण्डे स्त्रियों तक को दान करा लेते थे। काशी और प्रयाग में लोग प्राण तक देते थे। परन्तु आज कल धर्म का दर कूड़े कर्कट से भी गिरा हुआ है। मन्दिर के पत्थर के सामने एक पाई फेंक देने से धर्म हो जाता है। फटे कपड़े किसी दरिद्र को दे डालने से भी धर्म होजाता है। जूंठन किसी भूखे को दे देने से भी धर्म हो जाता है। किसी खास नदी मे एक गोता लगाने, बड़, पीपल के ३-४ चक्कर लगाने, तुलसी का एकाध पत्ता चबाने, गाय का पिशाब पीने आदि से भी धर्म प्राप्त होजाता है। एकाध दिन भूखा रह कर फिर भाँति भाँति के माल उड़ाने से भी धर्म होता है। माथे पर साढ़े ग्यारह नम्बर का साइनबोर्ड लगाने पर भी धर्म होता है। किसी पाखण्डी ब्राह्मण को आटा, दाल दे देने, कुछ खिला पिला देने, या किसी भिखारी को एकाध धेला पैसा दे देने से भी, धर्म होता है।