भारी धका लगा। तथापि तत्पश्चात् गुप्त वंशीय राजा लोग, शात कर्णी, चालुकर पुलकेशी आदि राजाओं ने अश्वमेध जैसे यन्त्र (कि जिनमें ३०० पशुओं का हवन विहित है) किये और वैदिक परम्परा को स्थिर किया। राजा जयसिंह ने भी अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञीयहिंसा हिंसा नहीं है। छाँदोग्य उपनिषद में कहा है कि—
'माहिंस्यात्सर्वाणि भूतनि अन्यत्र तीर्थेभ्यः।'
तीर्थनाय शास्त्रानुज्ञा विषय, ततोऽन्यत्रेत्यर्यः।
(शांकर भाष्य)
शास्त्र की आज्ञानुसार जो कर्म किया जाता है—वही तीर्थ है। इस प्रकार के कर्मों को छोड़कर अन्य कर्म में हिंसा करना नहीं चाहिये। तात्पर्य श्रीशंकराचार्य भी यज्ञीय हिन्सा के विरोधी नहीं थे।
"देवताओं के उद्देश्य से यज्ञ प्रसङ्ग में वेदोक्त विधि से जो पशु हनन होता है—उसका नाम हिंसा नहीं है। अपना पेट भरने के लिये मांस खाने की इच्छा से जो पशु हनन होता है वही हिंसा है। वेदोक्त पशु हिंसा में देवताओं के लिये मांसाहुतियाँ समर्पित करना ही मुख्य उद्दिष्ट होता है। हुत शेष मांस का भक्षण करना भी विधि विहित है। अतः शास्त्रज्ञा रक्षण करने की इच्छा से ही (?) इस हुत शेष का मांस भक्षण किया जाता है।
"वर्णाश्रम विहित होने ही से यज्ञीय पशु हिंसा की जाती है। सोम याग में पशु हिंसा के बिना कर्म पूर्ण ही नहीं हो