मन्दिर के एक स्थान पर स्त्रियाँ दोनों में कुछ अद्भुत घिनौली वस्तु लिये बैठी थीं। सड़ी हुई लीची को छील कर रखने से जैसी आकृति होती है, वैसी वह चीज़ थी, पूंछा तो कहा—'आँखें हैं' अर्थात् मरे हुये पशुओं की की आँखें निकाल कर एकत्र की गई हैं। पूंछा कि इनका क्या होता है? कहा—खाते हैं।
मैंने इस घटना से दस वर्ष पूर्व जयपुर आमेर की शिलादेवी के आंगन में बध हुये बकरे को देखा था, और विन्ध्याचल के मन्दिर में साधारण दृश्य देखा था—पर ऐसा भयानक रोमांचकारी बूचड़खाना, और खुले आम पशुओं का बध इतनी अधिक संख्या में मैने नहीं देखा। मेरी इतनी अभिरुचि देखकर पण्डे ने मुझे भी एक बकरा माई की भेंट करने को प्रोत्साहित किया। और कहाँ से वह सस्ता बकरा ले आवेगा यह भी उसने बताया।
वहाँ से मैं कलकत्ते गया। वहाँ कालीजी के मन्दिर में भी मैंने अल्प संख्या में यही दृश्य देखा, और इसी भाँति का मांस विक्रय का बाज़ार भी देखा। अन्य काली, दुर्गा आदि के मन्दिरों में इसी प्रकार से पशु वध होते ही हैं। और मेरे लिये यह अनोखी घटना थी—पर हिन्दू जाति के धर्म तत्व को जो भाग्यवान् लोग समझते हैं—वे जानते हैं कि इसमे अनोखा कुछ भी नहीं है। सब स्वाभाविक ही है
मन्दिरों में देवताओं के सामने पशु का वध करना यह