साधारण खाद्य द्रव्य मिला। जब चार भाग करके चारों खाने बैठे—तब फिर उसने किसी भूखे को पुकारा और एक बूढ़े ने आकर कहा—मैं भूख से मर रहा हूँ ईश्वर के लिये मुझे भोजन दो। गृहस्थ ने आदर से उसे बुलाया और अपना भाग उसके सामने धर दिया। खा चुकने पर जब उसने कहा—अभी मैं और भूखा हूँ। तब गृहणी ने, और उसके पीछे बारी बारी से पुत्र और पुत्र बधू ने भी अपने अपने भाग दे दिये। इतने पर अतिथि ने तृप्त होकर आशीर्वाद दिया और हाथ धोकर वह अपने रास्ते लगा। वह धर्मात्मा ब्राह्मण परिवार भूख से जर्जरित होकर मृत्यु के मुख में गया। उस अतिथि ने जो अपने झूठे हाथ धोये थे। उस पानी से जो उस महात्मा का घर गीला होगया था उसमें मैं सौभाग्य से लोट लिया था। पर उस पुण्य जल में मेरा आधा ही शरीर भीगा वह उतना ही स्वर्ण का होगया। अब शेष आधे के स्वर्ण होने की कोई आशा नहीं है। आधा शरीर चर्म का लेकर ही मरना होगा।
क्षुद्र जन्तु की यह गर्वीली कथा सुनकर युधिष्ठिर की गर्दन झुक गई। और अपने तामसिक कर्म तथा गर्व पर लज्जा आई।
श्री रामचन्द्र जी, पिता की आज्ञा मान कर अपना राज्याधिकार त्याग जो वन को गये, उन के इस कार्य को मैं दृढ़तापूर्वक अधर्म घोषित करता हूँ। ज्येष्ट पुत्र होने के कारण श्रीराम का राज्य पर पूर्ण अधिकार था। श्रीराम आदर्श शासक भी होने