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लिखित उसी समय सुधन्वा की ड्योढ़ियों पर पहुँचे। ऋषि का आगमन सुन कर उन्होंने मन्त्रियों सहित द्वार पर आकर उनका सत्कार किया और भीतर ले गये। कुशल पूंछा, पूजा की और हाथ बांध कर कहा "ऋषिवर! आज्ञा से कृतार्थ कीजिये।"

ऋषि ने कहा "राजन् हमने चोरी की है—हमें दण्ड दीजिये। उन्होंने सब घटना भी सुना दी। राजा ने सुन कर कहा—ऋषिवर! राजा को अभियोग सुनकर अपराधी को अपराध के गुरुत्व पर विचार करके जैसे दण्ड देने का अधिकार है; वैसे ही उसे क्षमा करने का भी। मैं आप को क्षमा करता हूँ। ऋषि ने कहा—"नहीं राजन्, मैं दण्ड की याचना करता हूँ"। तब राजा ने विवश हो राजनियमानुसार ऋषि के दोनों हाथ कटवा लिये। तब लिखित खून से टपकते दोनों कटे हुये हाथों को लिये भाई के पास जाकर बोले—भाई, मैंने राजा से दण्ड प्राप्त कर लिया है; अब आप भी क्षमा कर दीजिये।

यह छोटी सी हृदय को हिला देने वाली घटना इस बात पर प्रकाश डालती है कि अकारण एक फल भाई के बाग़ से बिना आज्ञा तोड़ कर खाना कितना गुरुतर अपराध है, और सकारण चाण्डाल के घर से सूखा कुत्सित मांस चुराना भी अपराध नहीं प्रत्युत कर्तव्य है।

इन सब बातों के अलावा कुछ ऐसी बातों का दुरुपयोग होता रहा है जिनका यदि सदुपयोग होता तो अवश्य ही उससे जगत् का कल्याण होता।