कर चलने लगे। तब चाण्डाल ने जग कर और ऋषि को पहचान कर बहुत भला बुरा कहा। इस पर ऋषि तनिक भी न झेपे, उन्होंने चाण्डाल को ऐसा आड़े हाथो लिया कि बेचारे की बोलती बन्द हो गई। उन्होंने कहा "अरे, ढीढ़! तू मुझे उपदेश देने का साहस करता है? मैं जो कुछ करता हूँ उसे खूब समझता हूँ और मैं अवश्य करूंगा।"
जहां एक तरफ ऐसी कुत्सित और वीभत्स चोरी-ऐसे बड़े महात्मा द्वारा की जाने पर भी वह दोष पूर्ण नही मानी गई, वहां हम महाभारत ही में एक दूसरी घटना पाते हैं।
शंख और लिखित दो भाई थे। शंख ज्येष्ठ था, दोनों ऋषि थे। दोनों के आश्रम पृथक् २ थे। लिखित भाई से मिलने उन के आश्रम में गये। भाई बाहर गये हुये थे। लिखित ने आश्रम से एक पका मधुर फल तोड़ा और खाने लगे। इतने ही में शंख आ गये। शंख ने देख कर कहा—अरे! यह तुम ने क्या किया? यह फल कहां से पाया?
लिखित ने हंस कर कहा—"यहीं से तोड़ा!"
शंख ने चिन्तित होकर कहा—"यह तो बुरा हुआ, अरे! यह तो चोरी हुई?"
लिखित ने व्याकुल होकर कहा—"क्या यह चोरी हुई?"
शंख ने दुःखी होकर कहा—"निःसन्देह! तुम अभी राजा सुधन्वा के पास जाओ और दण्ड की याचना करो।"