पिछले अध्याय में मैंने चोर का उदाहरण दिया है। अब मैं फिर आप से पूंछता हूँ कि चोर को सत्य के नाम पर गड़ा हुआ गुप्त धन बता देना धर्म है या बेवकूफी? सब लोग यही कहते हैं कि धर्म की परीक्षा यह है कि वह सदा सज्जनों की रक्षा करे और दुष्टों का दमन करे। तब वह 'सत्य' धर्म कहां रहा? जो चोर को तो माल दिलवाये और मालिक को लुटवा दे। वहां तो झूठ बोलना ही धर्म है।
एक सिपाही दर्प से अपने को योद्धा कहता है, उसे शत्रुओं के हनन करने का गर्व है। जब वह खून की नदी बहा कर आता है, लोग गाजे बाजे से उस का सत्कार करते हैं वह वीर की भांति ऊंची गर्दन करके सब के बीच मे चलता है। मै पूंछता हूँ—किस लिये उसकी हत्या हिंसा नहीं मानी गई? पाप में नहीं सम्मिलित की गई? इस में क्या युक्ति है?
इस का उत्तर वही है जो मैं कह चुका हूँ। उस की उस खून ख़राबी में सार्वजनिक शान्ति की भावना है, वह मानव जाति के प्रति कुछ त्याग भाव रख कर ही यह कार्य करता है। यहां हम उस विषय पर न जायेंगे कि उस का वह भाव ठीक है या नहीं।
इसी प्रकार और भी अनेक ऐसी बातें हैं कि जिन का सदुपयोग ही धर्म कहा जा सकता है। महाभारत में विश्वामित्र ऋषि का चण्डाल के घर मे घुस कर कुत्ते का सूखा मांस चुराने की बड़ी मज़ेदार घटना है। जब ऋषि वह सूखी हुई टांग चुरा