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डालते हैं। जज, जेल अधिकारी, जल्लाद सभी को उस व्यक्ति से समवेदना होती है। इसलिये वे लोग हिंसक होते हुए भी पापी नहीं समझ गये।

मैं स्वयं भी जज का स्थान ले सकता हूँ। एक व्यक्ति ने मेरा वही अपराध किया है जो हर तरह जज की दृष्टि में अपराधी को फांसी का अधिकारी निर्णय करेगा। मैं स्वयं भी जज के बराबर ही बुद्धिमान और योग्यता सम्पन्न व्यक्ति हूँ। मैंने स्वयं ही उसे फांसी देदी, जेल के और जल्लादों के प्रपंचों में भी मैं नहीं पड़ा। ऐसी दशा में मैं हिंसक और पापी हूँ।

क्यों? सुनिये, पहिली बात तो यह कि मैं न्याय करने का उत्तरदाई नहीं, यह मेरा काम न था, दूसरे सिर्फ घटना का सम्बन्ध मेरे साथ था। इसलिये मैंने यह न्याय अपने हाथ में ले लिया। ऐसा करने में मन से राग द्वेष तो था ही। तीसरे, आज मैंने लिया कल दूसरा लेगा। उसे मेरा उदाहरण काफ़ी है, उसे मेरी योग्यता से कोई सरोकार नहीं। अपराधी को कब्जे में करके फांसी देने की योग्यता तो उस में है। तीसरे, अपराधी और उस के संरक्षकों को अपील का स्थान नहीं। मैं स्वयं ही आरोपी और स्वयं ही अधिकारी बन गया, इसलिये मैं संमत, विवेकी, स्थिर और सत्य पर नहीं रह सका अतः मैं हत्याकारी हूँ और पाप का भागी हूँ।

मुसलमानों के पूज्य हज़रत अली एक बार एक अपराधी को क़त्ल करने लगे। जब वे तलवार लेकर अपराधी के पास