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धीरे धीरे इन पाखण्ड पूर्ण विधानों के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ने लगी और प्रसिद्ध पौराणिक देवता ब्रह्मा, विष्णु, शिव के नाम प्रसिद्ध हो गये। ये तीनों देवता सृष्टि के उत्पादन, पालन और संहार इन तीन कामों के प्रथम देवता थे। वास्तव में यह हिन्दुत्रैकत्व बौद्धत्रैकत्व की नकल थी।
वर्त्तमान मनुस्मृति में जो बौद्ध काल के प्रारम्भ में बनी है इस त्रिदेव की कुछ भी चर्चा नहीं है। न उस में हिन्दुओं की मूर्त्तिपूजा का ही ज़िक्र है। हाँ, उस समय मूर्त्तिपूजा प्रारम्भ हो चली थी और उच्च कोटि के हिन्दू उस से घृणा करते थे। परन्तु यह अद्भुत रीति बढ़ती ही गई और हिन्दू धर्म की प्रधान वस्तु हो गई। अब अग्निहोत्र एक अतीत वस्तु बन गया था। ईसा की छठी शताब्दी में कालीदास के समय में यह प्रथा खूब प्रचलित हो गई थी। फाहियान चीनी यात्री जो भारत में सन् ४०० ईस्वी में आया था। उस ने काबुल में बौद्धों का पूर्ण विस्तार देखा था और वह कहता है वहाँ ५०० बौद्ध विहार है। उसने तक्ष शिला का विश्व-विख्यात विश्वविद्यालय देखा था और पेशावर में बहुत बड़ा बौद्ध स्तम्भ देखा था। मथुरा में उसने तीन हज़ार बौद्ध भिक्षुओं का सङ्घ देखा था और यहाँ उसने बौद्धधर्म का भारी प्रचार देखा था। राजपूताने के सब राजाओं को उसने बौद्ध धर्मी पाया था उसने सर्वत्र ऐसे विहार देखे थे जिनके लिये राजाओं और श्रीमन्तों ने लाखों रु॰ लगाये थे। सर्वत्र घूमता हुआ वह पटने गया और उस ने वहाँ बौद्धों के सङ्घ में प्रथम बार