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हैं, पति के साथ घूमना या बात करना तो एक दम पाप की बात है। वे हमारे उपदेशों को उपेक्षा और हँसी में टाल देती हैं। कभी कभी बहस भी करने लगती हैं। वे अपने दुर्बल, काले रोगी बालकों को प्यार करती हैं—उन पर उन्हें अभिमान है, एक स्त्री का जो पढ़ी लिखी है घर भर अपमान करता है—क्योंकि उसके अभी पुत्र नहीं हुआ है और वह उनकी गोष्ठी से अलग रहती है। जो बहुएँ मर चुकी हैं, उन्हें वृद्धा भाग्यवान् समझती है। और अपनी विधवा बेटियों को अभागिनी कहकर रोया करती है।

बुढ़िया को पुत्र पौत्रों को इधर उधर बेतरतीब से रोते मचलते, सोते बैठते, चीख़ते चिल्लाते देख कर बड़ा आनन्द आता है। वे कल्पना नहीं कर सकती कि जगत में उन से ज़्यादा सुखी कोई दूसरा भी है या नहीं।

बच्चों का पालन कुसंस्कारों और रूढ़ियों के कारण ऐसा गर्हीत हो गया है कि अपने जन्म के बाद पहले ही वर्ष में प्रत्येक तीन बच्चों मे एक मर ही जाता है। भारतवर्ष के बच्चे पशुओं और कीड़ों से किसी भांति श्रेष्ठ नहीं समझे जाते। एक बार कृष्णमूर्त्ति ने एक व्याख्यान में कहा था:—

"भारतवर्ष में बच्चे किस भाँति खुश रह सकते हैं? मैं तुमसे अपने ही बचपन की तरफ ख्याल करने को कहता हूँ, मैं नहीं कह सकता कि मेरा बचपन सुख पूर्ण था। मैं अपने माता पिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहता। क्योंकि जो कुछ हुआ वह