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गान्धर्व विवाह का हमें प्राचीन इतिहास में एकही उदाहरण मिलता है, शकुन्तला और दुष्यन्त का। यह गान्धर्व विवाह कितना बेहूदा और नीच कर्म था इसका ज्ञान हमें इसी विवाह से मिल जाता है। हमें कालिदास की रसीली कवित्वमयी लच्छेदार बातों से कुछ सरोकार नहीं, हम असली कथा पर ग़ौर किया चाहते हैं।
दुष्यन्त जैसा श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा शिकार को जाता है। वहाँ कण्व के आश्रम में पहुँचता है। कण्व वहाँ नहीं है, उनकी पोष्य पुत्री शकुन्तला है, वह उस युग के धर्म के अनुसार राजा का आतिथ्य करती है। राजा इस सुयोग से लाभ उठाकर बेचारी कुमारी बालिका को फुसलाकर वही उसका कौमार्य नष्ट करके और बहुत से सब्ज़ बाग़ दिखाकर घर चल देता है। जब ऋषि आते हैं और उन्हें सब बातें मालूम होती हैं, वे यही निर्णय देते हैं कि इसे उसके यहाँ पहुँचा आओ और जब वह वहाँ जाती है तो दुष्यन्त साधारण लम्पट की भाँति निर्लज्जता से कह देता है कि यह कौन है इसे मैं जानता भी नहीं। अन्त में वह माता के पास जाकर दिन काटती है, जिसे उसी की भाँति एक ऋषि भ्रष्ट कर चुका था, और जिसका फल वह ख़ुद थी, बहुत दिन बाद राजा को वृद्ध होने पर भी जब पुत्र नहीं होता तब वह उसे ख़ुशामद कर कराकर ले आता है।
यह असल कथा है। मेहमान का इस से ज्यादा नीच कर्म कौनसा हो सकता है कि वह जिसके घर में अतिथि बने उसी की कुमारी कन्या को उसकी ग़ैर हाज़िरी मे कुछ ही घण्टों में बहका