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चला। उस यज्ञ में क्या २ पाप पुण्य न हुये। यज्ञों के लिये घोड़े छोड़े जाते, युद्ध होते, राजाओं को व्यर्थ आधीन किया जाता, यज्ञ केलिये दिग्विजय की जाती, रक्त की नदियां बह निकलती। यज्ञों में राजा करोड़ों की सम्पदा ब्राह्मणों को दान करके भिखारी बन जाते। पीछे यज्ञों में पशु बध हुए। और भी भयानक स्थिति तो तब हुई, जब यज्ञ विधान तान्त्रिकों के हाथ में आये और मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि तथा भैरव, भैरवी, चण्डी, काली, कराली की सिद्धियां भी यज्ञों द्वारा ही सिद्ध की जाने लगीं।
यज्ञों का विरोधी दल उपनिषदों का भक्त मण्डल रहा। उस ने भक्तों को धर्म का काम मानने से इन्कार कर दिया। वह केवल मनन करने, ज्ञान प्राप्त करने और ज्ञानी होने ही को धर्म मानने लगे। ऐसे लोग एकान्तवासी, त्यागी, तपस्वी और मुनि बने। ये दोनों ही दल समय २ पर खूब ही संघर्ष करते रहे।
बौद्धों के उदय के साथ हिन्दुओं का यज्ञ करने वाला धर्म दब गया था। वह फिर उभरा और तब यज्ञ नष्ट हो गये थे। यज्ञों के स्थान पर मूर्तियों की पूजा हिन्दुओं का सर्वोपरि धर्म बन गया। उस मूर्ति पूजा में भी शैव वैष्णव और शाक्त तीन प्रधान सम्प्रदाय हुए। तीनों परस्पर विरोधी-शत्रु और विचार में एक दूसरे के सर्वथा विरोधी रहे।
तत्त्ववेत्ता और दार्शनिक लोगों की मध्ययुग में ख़ूब धाक रही। और इन्होंने धर्म के नियमों को प्रायः उच्छृंखल रीति से समझा