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दावात नहीं, उसकी ख़रीदी हुई सम्पत्ति भी नहीं, मकान, दुकान या जायदाद भी नहीं, सोना चाँदी या अन्न भी नहीं—फिर उसे कन्या को दान करने का किस ने अधिकार दिया? क्या कन्या के कोई आत्मा नहीं? वह जीवित नहीं? उसे अपने लाभ हानि पर, जीवन की समस्या पर विचार करने का ज़रा भी अधिकार नहीं? शोक तो यह है कि आर्य समाज की पुत्रियाँ भी विवाह के अवसरों पर पिताओं द्वारा दान की जाती हैं। आर्य समाज अपने को वैदिक धर्मी होने की डींग तो हाँकता है पर मैं डंके की चोट उसे चैलेंज देता हूँ कि वह साबित करे कि कन्या दान का विधान कौन से वेद मन्त्र में है? वेद में तो साफ़ ये शब्द मिलते हैं कि:—

'ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्'

सनातन धर्मियों के विवाह की अपेक्षा मुझे आर्य समाज के विवाह ज़्यादा भ्रष्ट और बेहूदे प्रतीत होते हैं। और मैं उन्हें कदापि नहीं सहन कर सकता। सनातन धर्म को कन्याऐं—बालक, अभागिनी, अबोध, मूर्खा, और पिता की सम्पति होती हैं। पिता वर का स्वागत करता है, आसन देता है, गोदान करता है, मधुपर्क देता है, पाद्य और आचमनीय देता है तब कन्या को भी दे देता है। इस के बाद वर वधू सप्तपाद आदि भी करते हैं। इन सब बातों में जैसा भी पातक या अनीति हो वह क्रमबद्ध तो है। पर आर्य समाज की पुत्रियाँ युवती हैं, पढ़ी लिखी हैं, विवाह के प्रश्नों पर उन्हें विचार करने का अवसर दिया जाता है, बहुधा कन्या को भावी वर से