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तीसरे में पुराण हैं। यद्यपि हिन्दू जाति इन सभी पुस्तकों को धर्म-ग्रन्थ मानती है परन्तु इन सब में अनन्त मत भेद हैं; और इसी का यह फल है कि हिन्दू जाति धार्मिक दृष्टि से इतने भागों में विभक्त है कि जितने भागों में पृथ्वी की कोई भी जाति नहीं। प्रत्येक के प्रथक् २ विश्वास हो रहे हैं। अकेले वेद और उसके साहित्यको धर्म ग्रन्थ मानने वालोंके सम्प्रदायोंकी ही गिनती करना कठिन है। स्मृतियों का काल, वर्णन, सब एक दूसरे के प्रतिकूल है। और पुराणों का तो हाल यह है कि उन से वेद और प्राचीन साहित्य से प्रत्यक्ष में कोई तारतम्य ही नहीं दृष्टि आता। इन में जिस ने जिस सम्प्रदाय को माना—वहीं उस का विश्वासी हो गया। इन भिन्न २ सम्प्रदाय, विश्वास और भावना के अधिकारियों के आचार विचार भी भिन्न २ हैं। कुछ लोग वेद को अपौरुषेय और यज्ञपरक मानते हैं। उनके मत में वेद ज्ञान का भण्डार और ईश्वरकृत है, कुछ लोग वेद को अपौरुषेय किन्तु यज्ञपरक मानते हैं। उनका मत है कि वेद ईश्वर कृत हैं और उस में ज्ञान नहीं—यज्ञ के उपयोगी मन्त्र मात्र हैं। उन मन्त्रों के अर्थों से कुछ मतलब नहीं, केवल मन्त्रों में कुछ शक्तिशाली प्रभाव है जो फल देता है। कुछ लोग वेद को ऋषियों द्वारा प्रणीत और ऐतिहासिक वस्तु मानते हैं। अन्ततः वेदो को यज्ञपरक मानने वाले हिन्दू जाति में अधिक हुए हैं। सायण और महीधर जैसे भाष्यकार और निरुक्तकार भी इसी मत के हुए। एक समय ऐसा आया कि यज्ञ ही हिन्दुओं का सर्वोपरि धर्म हो गया और सैकड़ों वर्ष तक