पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१००

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"...इस लिये ईश्वर और गुरु की सेवा ज़रूर करनी चाहिए। जो मनुष्य ईश्वर की सेवा करे तो 'व्यापी' वैकुण्ठ में जाय—पर वही—जो गुरु की सेवा भी ईश्वर की तरह करे। .....पराई वस्तु भोगने का दोष तो इस सृष्टि को लगता है। ईश्वर के लिये तो कुछ पराया है ही नहीं। इस लिये व्यभिचार का दोष ईश्वर ने सृष्टि को हो दिया है। अज्ञानी (?) कहते हैं 'कि जो कोई पुत्री पिता से कहे कि मैं तुम्हारी स्त्री हूँ' इसमे कितनी अनीति है। इस लिये ईश्वर के साथ जार भाव की प्रीति रहने वाले कितने अधर्मी है। इसमे यह बात सोचने योग्य है कि गोपियों ने श्रीकृष्ण के साथ जार भाव की प्रीति की थी, क्या उन्होंने अवर्माचरण किया? तथा सृष्टि के साथ सृष्टि की स्त्रियाँ पार्वती, सीता आदि को महादेव और रामचन्द्र ने विवाह, तथा श्रीकृष्ण ने १६ हज़ार गोपियों को व्याहा (?) यह भी क्या अधर्म था? यह बात भी उन मूरखो (?) के कहने से सिद्ध होगी। जो केवल पिता पुत्र का भाव ही ईश्वर से हो तो श्रीकृष्ण इन कन्याओं को क्यों व्याहते (?) पर ईश्वर में तो सबभाव हैं।.....वह अपनी आत्मा (?) के साथ ही रमण करता है—उसे कुछ दोष नहीं। अज्ञानी (?) लोगों को शास्त्र विरुद्ध बात समझा कर लोग भ्रम में डालते है, जो जार भाव की प्रीति ईश्वर के साथ रखने में अधर्म होता हो तो, पूर्ण पुरुषोत्तम वेद को जार भाव रखने (?) का वरदान ही नहीं देते।"

कुछ दिन पूर्व बम्बई में इस सम्प्रदाय के विरुद्ध बड़ा भारी