"गुस्सा करने से क्या होगा भाईजान! अकेली मैं ही तो न थी। हम चार थीं।"
"छी, छी!"
"फिर भी, मैं कहूँगी, नवाब शरीफ आदमी था। आखिर वक्त में तो मैं उनकी बदनसीबी पर कराह उठी। मुझसे जो बना उनकी खिदमत की, उन पर रहम किया।"
"और प्यार?"
"प्यार किया होता तो तुम क्या आज मुझे पत्थर, ठोस पत्थर समझते?"
"माफ किया तुमने उन्हें मरने से पेश्तर?",
"ओह, यह मत पूछो। माफ तो मैंने उन्हें उसी दिन कर दिया था जिस दिन उन्हें पहली बार देखा था। उसके बाद तो मैं समझती ही गई कि यह आदमी तरस के काबिल है, फिर मैं औरत की ज़ात–अपनी आँख से एक आदमी को इस कदर लाचार, सूना, बेआसरे कैसे देख सकती थी! राह चलते भिखारी को भी तो मैं नहीं देख सकती; फिर वे तो मेरे शौहर थे।"
"एक बार भी तुमने कभी उन पर गुस्सा नहीं किया बानू?"
"गुस्सा? उन भूखी, अछताती-पछताती चोर की तरह नज़र छिपाती, गुनाह की तस्लीम करती हुई आँखों को देखकर भी भला कोई गुस्सा कर सकता है! पत्थर ज़रूर हूँ भाईजान, मगर औरत हूँ, यह भी तो सोचो।"
"लेकिन उसके बाद?"
"मेरा एक सहारा था–ज़ीनत।"
"तुम्हारी सौत?"
"लेकिन बड़ी बहन और माँ की तरह उन्होंने मुझे अपनी गोद में ढाँप लिया। इसी से वह आग जिसमें मेरी जैसी बदनसीब औरतें जला करती हैं, मुझे ज़्यादा तकलीफ न दे सकी–फिर, मैं तो जलने की आदी हो गई थी। अफसोस यही रहा कि वह गोद भी कायम न रही, छिन गई। और ज़ीनत बहन भी चली गईं।"
"कितने दिन जलीं वे?"
"अड़तीस बरस, मैं तो सिर्फ आठ ही बरस; वह भी ज़ीनत बहन की गोद में।"
"आठ बरस क्यों?"
"उसके बाद तो आग बुझ ही गई। राख में बैठे रहने में क्या दिक्कत थी!"
"तो बानू, आठ बरस मुर्दे के साथ और बीस बरस चिता की ठण्डी राख में बैठी रहकर यहाँ आई हो? लेकिन दूध की धोई-सी, उजली, पाक-साफ, फरिश्ते-सी, अछूती, निराली देवी..." डाक्टर दोनों हाथ फैलाकर दौड़ पड़े और हुस्नबानू के पैरों में लोट गए।
हुस्नबानू घबराकर पीछे हट गई। डाक्टर ने खड़े होकर कहा, "हम हिन्दू देवी के पुजारी होते हैं। हमारी देवी भी पत्थर की होती है। हम उसके सामने हँसते-रोते हैं, भेंट देते हैं, मानता मानते हैं, पर वह वैसी ही अचल रहती है। सुनते हैं, देखा नहीं कि किसी भक्त पर प्रसन्न होकर वह प्रकट होकर वर देती है–सो आज मेरा जीवन सफल हो गया–देवी का प्रत्यक्ष-प्रकट दर्शन हो गया। इज़ाज़त दो, इन चरणों पर अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाऊं। अपने गुनाहों की माफी मांगूं।"
"गुनाह क्या?"