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चाहती, माँ को खुश रखे, पर कोई उपाय सूझ न पड़ता था। उसने संगीत में मन लगाना चाहा। शिशिर को उसने अपना साथी बनाना चाहा, पर यह भी न हुआ। जब-तब वह सितार को छेड़ती या कभी कोई सखी-सहेली कॉलेज की आ जाती तो उसका मन बहल जाता। अरुणादेवी को अब अपने बच्चों की ब्याह-शादी की चिन्ता सता रही थी। दिलीप की बाधा अब पहाड़ होकर उसके सामने अड़ गई थी। कैसे वह इस बाधा को पार करे, यह तय नहीं कर पाती थी। पति से भी अब उसकी बातचीत का यही मुख्य विषय थी। जीवन, दाम्पत्य, गृहस्थी-सबसे ऊपर यह बोझ उन्हें मारे डाल रहा था। डाक्टर पर भी यह चिन्ता-भार था; इसके अतिरिक्त वे यह भी सोचते थे कि लड़के पढ़-लिखकर कुछ काम- धन्धा नहीं करते, उनका जीवन अव्यवस्थित हो रहा है। केवल इसीलिए नहीं कि इसमें जीविका का प्रश्न था। डाक्टर को रुपए-पैसे की कमी न थी-मुख्य प्रश्न उसके सामने यह था कि कहीं लोग इन लड़कों को आवारागर्द न समझ लें, उनकी पारिवारिक साख न डूब जाए। डाक्टर की इस चिन्ता पर जब दिलीप के जन्म-रहस्य और उसके विचारों की चिन्ता का प्रभाव होता था, तब डाक्टर इस उम्र में भी विचलित हो जाते थे। करुणा ने एक दिन एकान्त रात में बैठकर माया को एक खत लिखा। खत बहुत लम्बा था। खत का प्रारम्भ हुआ था 'भाभी' से। और अन्त हुआ था, 'जल्दी आओ भाभी' से। बीच में बहुत-सी बातें थीं। अधिकांश में भैया की। बड़े भैया जेल गए। जेल से आ गए; अब वे गुमसुम अकेले बैठे रहते हैं। न उन्हें खाने की सुध है, न कपड़ों की। वे कभी नहीं हँसते। पहले जब वे हँसते थे, तो मालूम होता था पहाड़ फट पड़ा। पर अब वह हँसी गायब हो गई है। वे रात-रात-भर छत पर चटाई पर पड़े तारों में कुछ देखते रहते हैं। किसे देखते हैं भला भाभी? बताओ तो। अच्छा, मैं ही बताती हूँ तुम्हें देखते हैं। तुम आओ तो वे तुरन्त हँस पड़ें। और मैं भी इतना हँसू भाभी, कि बस समेटे से न सिमढूँ। और मैं तो बैठी-बैठी चौंक पड़ती हूँ। ऐसा मालूम होता है, तुम आ रही हो। ज़रा आहट पाई, समझ लिया, तुम आई हो। अम्माँ जब तुम्हारी याद करती हैं, आँख भर लाती हैं। मेरी अच्छी भाभी, तुम अम्माँ को रुलाती हो। तुम आओ तो हम सब हँसेंगे। बोलो कब आओगी? पत्र में इसी तरह की बहुत बातें थीं। कुछ इधर-उधर की कहकर फिर ‘कब आओगी, कहो' यही रट थी। खत भेज दिया गया। उसकी चर्चा करुणा ने किसी से नहीं की। खत का जवाब आया। माया ने केवल एक पंक्ति जवाब में लिखी थी-“अपने भैया से कहो-आकर ले जाएँ।” करुणा के मन की कली खिल गई। उमंग में दौड़ी-दौड़ी दिलीप के पास पहुँची। अबोध बालिका की तरह खत को कपड़ों में छिपाकर कहा, “बताओ तो बड़े भैया, मेरे हाथ में क्या “मैं क्या जानूं?" “वाह, जानना पड़ेगा!" “ज़बर्दस्ती है कुछ।” "है ही, बताओ क्या है?" “बिल्ली का बच्चा है।" “वाह!"