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मित्र शत्रु। मेरा विश्वास है कि सुभाष धुरी राष्ट्रों से मिल गए हैं, और यदि उन्होंने भारत पर जापानी सेना लेकर आक्रमण किया तो मैं तलवार लेकर उनका मुकाबला करूँगा!" सुभाष बाबू का ख्याल था कि ब्रिटेन युद्ध-संकट में फँसा है। यही अवसर है जब उस पर हमला करके उसे धूल में मिलाया जा सकता है। साम्राज्यवाद के हृदय-परिवर्तन में उन्हें तनिक भी विश्वास न था। वे तो इस नीति पर चल रहे थे कि शत्रु का शत्रु मित्र और शत्रु का यही विचार थे, जिनके कारण उन्होंने युद्ध शुरू होते ही इस बात पर जोर दिया था कि अब देश अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दे। वे गाँधीजी की 'ठहरो और प्रतीक्षा करो' की नीति पसन्द नहीं करते थे। वे समझते थे कि यदि हम इस अवसर को हाथ से निकल जाने देंगे तो युद्ध के बाद साम्राज्यवाद हमारी गुलामी की जंजीरों को और भी ज़ोर से जकड़ देगा। इसी से उन्होंने गाँधीजी को एक पत्र भी लिखा था : "हम लोग यहाँ हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए हिन्दुस्तान की ज़मीन पर लड़ रहे हैं। हम मौत को पीछे धकेलकर आगे बढ़ रहे हैं। हमारा यह संग्राम तब तक चलता रहेगा जब तक कि आखिरी अंग्रेज़ स्वेज़ के पार नहीं धकेल दिया जाता।" और वह दिन भी आया जब गाँधीजी ने 'भारत छोड़ो' का अग्निबाण छोड़ा। और जैसे किसी जादूगर के जादू से विमोहित हो अंग्रेज़ भारत को छोड़ चले। दिलीप और शिशिर जब छूटकर घर आए, तो दोनों में गम्भीर परिवर्तन हो गए थे। शिशिर अधिक गम्भीर और दिलीप अधिक उग्र हो गया था। उसके भीतर और बाहर जैसे आग जल रही थी। वह बहुत कम घर में रहता, बहुत कम किसी से बोलता था। केवल करुणा उसका ध्यान रखती थी। दिलीप और शिशिर घर आए तो, पर घर में से विषाद का वातावरण दूर नहीं हुआ। ऐसा प्रतीत होता था जैसे घर का प्रत्येक पुरुष चिन्ता के भार से दबा हुआ है। दिलीप जितना ही संयत होना चाहता, उतना ही वह असंयत होता जाता। जितना ही वह अपने को माया से विमुख करना चाहता, उतना ही माया के प्रति उसका खिंचाव बढ़ता जाता। वह प्रत्येक क्षण अब केवल माया को भूलने के लिए राजनीतिक और साम्प्रदायिक दल- बन्दियों के ताने-बाने बुनता, पर प्रत्येक क्षण जैसे उसकी विचारधारा कुण्ठित होकर उसके सम्पूर्ण चैतन्य को माया की ओर ले दौड़ती। जेल-जीवन में वह कुछ उदार हुआ था और माया के प्रति निर्मम व्यवहार अब उसे और भी खल रहा था, फिर भी वह मन ही मन घुटा जा रहा था। वह किसी से मन की व्यथा कह न पाता था। माँ से वह कभी-कभी कहना चाहता था, परन्तु कह नहीं सकता था। सुशील सबके सन्देह और अश्रद्धा का भाजन बना, अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अब खीजा रहता। घर के सभी लोगों से वह कटुभाव रखता। घर के लोग भी कुछ उससे डरते, कुछ विरक्ति प्रकट करते। शिशिर अधिक गम्भीर हो गया। जेल-जीवन ने उसके मन में आत्मश्लाघा के भाव भर दिए और वह देश और राष्ट्र के लिए बड़े-बड़े काम करने की योजना बनाने लगा। स्थानीय कांग्रेस कमेटी में भी उसका प्रवेश हो गया। पढ़ना-लिखना छोड़ दिया। करुणा अपना मेडिकल कर रही थी। घर में अब उसे कोई साथी ढूँढ़े न मिलता था। वह सूनी-सूनी-सी रहती। माता को उदास देखकर वह