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1937 में मन्त्रिमण्डल बना तो वे मन्त्रिमण्डलों के कट्टर समर्थक हो गए।

लाल झण्डे के सम्बन्ध में भी नेहरू के विचार महत्त्वपूर्ण थे। उन दिनों किसान-सभाओं में लाल झण्डा फहराया जाता था। कुछ कांग्रेसी, जो किसान-सभाओं के विरोधी थे, लाल झण्डे के प्रयोग का विरोध करते थे। उन्होंने जब जवाहरलाल से यह बात कही तो उन्होंने गरजते हुए कहा, "लाल झण्डा किसानों का है। वह आएगा और ज़रूर आएगा!" परन्तु उसी साल जब अयोध्या में प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन हुआ तो वे लाल झण्डे के बड़े विरोधी बन गए। किसान-सभाओं का भी विरोध करने लग गए। जो जवाहरलाल कभी कांग्रेस के भीतर उग्र विचारवालों की एकता के कट्टर समर्थक थे, उन्होंने अपनी आत्मकथा में उग्र विचारवालों की निन्दा की।

इसी प्रकार सुभाषचन्द्र बोस ने सन् 1939 में जब देश के वामपक्षीय दलों केप्रतिनिधियों की उग्र एकता-समिति बनाई तो उसे जवाहरलाल ने पसन्द नहीं किया।

सुभाष बाबू का दृष्टिकोण दूसरा था। वे इन प्रश्नों पर सिद्धान्त की दृष्टि से विचार करते थे। उनका कहना था कि व्यवहार के सम्बन्ध में किसी से समझौता किया जा सकता है, पर सिद्धान्तों की बलि नहीं दी जा सकती। उनका ख्याल था कि अनुशासन और एकता की रक्षा तभी हो सकती है जब लोगों की सिद्धान्त-नीति और कार्यप्रणाली एक हो। विभिन्न विचारों के माननेवालों में नीति और सिद्धान्तों-सम्बन्धी संघर्ष होगा ही। और जिसके सिद्धान्त और नीति समयानुकूल होगी उसकी विजय होगी। वे अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ थे। परन्तु वे कांग्रेस में अनैक्य और अनुशासनहीनता उत्पन्न करना नहीं चाहते थे। वे यह भी समझते थे कि कांग्रेस के सभी जन साम्राज्य-विरोधी हैं इसलिए उनमें कार्य और नीति-सम्बन्धी एकता की बड़ी आवश्यकता है। पर वे समझते थे कि कांग्रेस की नीति और कार्य पद्धति समयानुकूल नहीं है; उसमें परिवर्तन होना चाहिए। वे देश की स्वतन्त्रता के प्रश्न पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद से कोई भी समझौता करने के कट्टर विरोधी थे। जवाहरलाल भी यह जानते तथा मानते थे, पर वे अनुशासन के नाम पर पुराने दृष्टिकोण के स्थान पर नए दृष्टिकोण को स्थापित करके संघर्ष पैदा करना नहीं चाहते थे। वे अनुकूल समय की ताक में थे।

भारत के तरुणों के इन दोनों प्रतिनिधियों में ये विचार-भिन्नताएँ थीं। परन्तु युद्ध की समाप्ति पर तो वह अन्तर और साफ हो गया। जवाहरलाल युद्ध को लोकतन्त्रवादियों और फासिस्टों के बीच का युद्ध समझते थे। इसी से तथाकथित लोकतन्त्र-समर्थक ब्रिटेन और अमेरिका को किसी प्रकार का आन्दोलन करके परेशान नहीं करना चाहते थे। और, जब प्रयाग में हुई कांग्रेस कार्यसमिति में गाँधीजी ने 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव रखा तो जवाहरलाल ने उसका विरोध करते हुए कहा, "इससे अमेरिका और अंग्रेज़ हमारे विषय में क्या सोचेंगे?" और बम्बई में 'भारत छोड़ो' का प्रस्ताव पास होने के कुछ पहले ही उन्होंने पत्र-संवाददाताओं से सुभाष की चर्चा चलने पर कहा, "हम अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए ऐसे किसी देश की सहायता का स्वागत करेंगे जो हमारी स्वतन्त्रता के अधिकार को स्वीकार करे। परन्तु हम अपने शत्रु की दुर्बलता से लाभ नहीं उठाना चाहते। और न उसे संकटकाल में परेशान ही करना चाहते हैं। जहाँ तक सुभाष बाबू का सम्बन्ध है–उनसे हमारा मतभेद रहा है; और अब तो हमने एक-दूसरे के विपरीत मार्ग ग्रहण कर लिया है।