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नेता बना बैठे। अब नित्यप्रति उनकी मीटिंग होती। उसमें भिन्न-भिन्न राजनीतिक और धार्मिक मसलों का विवेचन होता। दिलीप की प्रतिभा ने इस समय मानवता का सम्पुट लगाकर एक नवीनतम भव्य रूप धारण कर लिया था। वह उस मण्डली का एकमात्र प्रवक्ता था। प्रोफेसर का नाम था सियारामशरण। वे गुरुदासपुर में दर्शनशास्त्र के प्रधानाध्यापक थे। इंग्लैंड और जर्मनी की डाक्टरेट प्राप्त थे। विश्वदर्शी और बहुपंडित थे। गम्भीर, मनस्वी और शान्त थे। दंगाई विद्यार्थियों को छिपाने का प्रश्रय देने का उन पर आरोप था। बच्चों के समान सरल आदमी थे। वे एक प्रकार से मौन ही रहते थे। तरुणमण्डली के सारे उपद्रव निरीह भाव से सहते। जब वे सब हँसते तो साथ देने को वे भी मुस्करा उठते थे। बहुधा वे घंटों चुपचाप समाधिस्थ-से बैठे रहते। यों वे सभी के श्रद्धाभाजन थे। इसके विपरीत डाक्टर साहब बड़े वाचाल थे। अमृतसर में होम्योपैथी की प्रैक्टिस करते थे। एफ. ए. फेल थे। पर बड़े भारी विद्वान् और भारी डाक्टर का ढोंग रचते थे-तरुणमण्डली उन्हें बनाती भी खूब थी। पर वे बनकर भी न बनते थे। लतीफे सुनाने तथा बामुहावरा गप्प लड़ाने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। इससे सभी लोग उनसे प्रसन्न रहते थे। 'बरखुरदार' उनका तकियाकलाम था। बात-बात में वे कहा करते, 'बरखुरदार, ये बाल मैंने धूप में सुखाकर सफेद नहीं किए! बहुत-कुछ खोकर कुछ पाया है। मेरी नेक नसीहत सुनो।” आदि-आदि। ये दोनों भद्रपुरुष हठी और आत्माभिमानी होने के कारण जेल-नियमों की अवज्ञा करके इस अन्धकूप में इन तरुणों के साथी आ बने थे। जो हो, सबकी मज़े में गुज़र रही थी, और जब उस दल का नेता दिलीप बना तो इन दोनों निरीह भद्रपुरुषों ने भी चुपचाप उसे स्वीकार कर लिया। प्रोफेसर तो मुस्कराकर ही चुप रह गए पर डाक्टर ने कहा, 'बरखुरदार, हो तो तुम बहुत होशियार, बात भी पते की कहते हो, पर तजुर्बा कम है। हमारी तरह जब तुम्हारी दाढ़ी सफेद होने लगेगी तब कुछ समझोगे!” दिलीप जवाब न देता। यार लोग खिलखिलाकर हँस देते। प्रकाश तभी एक तान छोड़ देता। और वह मनहूस वायुमण्डल मुखरित हो उठता। 28 शिशिर का जेल-जीवन बिलकुल एक दूसरे ही ढंग का था। दिल्ली जेल में कुछ विशेष बातें थीं। विशेषों में विशेष यह कि वहाँ एक आजन्म कैदी थे–महन्तजी। पंजाब में वे किसी भारी गुरुद्वारे के महन्त थे। जिस गाँव में गुरुद्वारा था, वहाँ हुआ एक भारी हिन्दू-मुस्लिम विद्रोह। उसी में महन्तजी पर सात आदमियों के कत्ल का केस चला था। फाँसी से वे बच गए थे, पर सारी जायदाद, जो लाखों की थी, ज़ब्त हो गई। और आजन्म कैद की सज़ा काट रहे थे। परन्तु वे कहने ही को कैदी थे। जेल के सुपरिटेंडेंट से लेकर साधारण कैदी तक उनका आदर करते थे। जेल के बाहर-भीतर आने का भी उन पर प्रतिबन्ध न था। एक प्रकार से जेल के वे सहायक प्रबन्धकर्ता थे। बाज़ार जाना, सौदा सुलफ खरीदना, जेल की बनी