समाजवाद की बातें पीछे रह गई थीं और कूटनीति ने उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया था। देश में इस समय कम्युनिस्टों के प्रति गहरा रोष छाया हुआ था। हाल ही में यह अफवाह उड़ी थी कि सुभाषचन्द्र बोस के भारत से पलायन में कम्युनिस्टों ने सहायता की थी। परन्तु इसके बाद ही रूस युद्धक्षेत्र में उतर आया था और एंग्लो-अमेरिकन गुट में सम्मिलित हो गया था। इसलिए उन्होंने सुभाष के पलायन का सारा भेद ब्रिटिश सरकार को बता दिया था। इससे देश-भर में कम्युनिस्ट के प्रति अवज्ञा और क्रोध की भावना फैल गई थी; यद्यपि कम्युनिस्ट चीख-चीखकर प्रचार कर रहे थे और अपने को निर्दोष प्रमाणित करने की चेष्टा कर रहे थे। परन्तु इसी समय कम्युनिस्टों के पत्र 'पीपल्स वार' में कम्युनिस्टों ने एक लेख छपाकर तत्कालीन यूनियनिस्ट सरकार की निन्दा की थी। जिससे जगह-जगह कम्युनिस्टों का बहिष्कार हो रहा था, और उन्हें पीठ में छुरा भोंकनेवाला दगाबाज़ कहा जा रहा था। इसी समय एक और बात का भी भण्डाफोड़ हुआ था कि कम्युनिस्टों ने जर्मन दूतावास से एक भारी रकम चुपचाप वसूल कर ली है। ब्रिटिश सरकार भी इनका विश्वास नहीं कर रही थी। और इनकी दशा इस समय धोबी के कुत्ते की भाँति हो रही थी। अंग्रेज़ जैसे बुद्धिमान् जाति के लोग यह बात अनायास ही समझ गए कि जो अपने देश के साथ विश्वासघात करता है वह हमारे साथ भी विश्वासघात किया करेगा। फिर भी कम्युनिस्ट इस समय सी. आई.डी. का काम कर रहे थे।
सुशील दिल्ली की कम्युनिस्ट पार्टी का जनरल सेक्रेटरी था। दिल्ली राजधानी थी,अतः वह बहुत-सी गहरी कार्यवाहियों में संलग्न था। वह बहुधा दो-दो,तीन-तीन दिन तक घर से गैरहाज़िर रहता। इसी समय एक और बात हो गई थी–दो अपरिचित और रहस्यमय पुरुष छिपकर समय-समय पर उसके पास आने लगे थे। उनमें एक का नाम अच्छरसिंह था, दूसरे का हरनामसिंह। वास्तव में यही वे दोनों गूढ़पुरुष थे जिन्होंने सुभाषचन्द्र बोस को भारत से पलायन में मदद दी थी तथा काबुल में रूसी दूतावास में उन्हें ले गए थे। परन्तु अब इन्होंने दिल्ली केन्द्र की मार्फत सारे भेद खोल दिए थे। और अब वे सी. आई. डी. की भाँति काम कर रहे थे।
सुशील यद्यपि बहुत सावधान आदमी था। यों वह देश का शत्रु न था, पार्टी की नीति से वह विवश था। और अब तो चालें बहुत गहरी हो गई थीं। शिशिर की गिरफ्तारी से वह भी काफी चंचल हुआ। उधर सभी का यह सन्देह था कि इस गिरफ्तारी में सुशील का हाथ है। डाक्टर और अरुणादेवी ने उससे बोलचाल और बातचीत भी बन्द कर दी थी।
दिलीप शिशिर को खास तौर पर प्यार करता था और उसकी गिरफ्तारी से उसे बहुत गुस्सा चढ़ आया था। उसका स्वभाव ही तीखा था। माता-पिता का दु:ख देखकर वह और भी अस्थिर हो गया। अंग्रेज़ी हुकूमत का तो वह विरोधी था ही। उसने अपने राष्ट्रीय संघ के तत्त्वावधान में एक विराट् सभा का आयोजन किया और उस सभा में उसने जो भाषण दिया, वह भाषण न था ज्वालामुखी का विस्फोट था। उसने कहा :
"भाइयो, गत चालीस साल से हम यह अनुभव कर रहे हैं कि अन्धकार में डूबी हुई जाति के भीतर एक नवीन जाति जन्म ले रही है। प्राचीन हिन्दू जाति धर्मग्लानि के कारण क्षुद्राशय हो गई थी। जिसे अनेक महात्माओं ने अपनी शक्ति और प्रतिभा को खर्च करके विपत्काल से उभारा, उन्हीं के अमोघ प्रभाव से आज नवीन जातीयता के बीज उगते दिख