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और इसी समय धुएँ की काली-सी रेखा म्युनिसिपैलिटी की संगीन इमारत से उठती नज़र आई। साथ ही दीपशिखा-सी लौ उठी जो देखते ही देखते विकराल ज्वाला की लपटों में बदल गई। दिल्ली का म्युनिसिपल भवन धाँय-धाँय जल रहा था। उधर भीड़ ने पुलिस-लारी में आग लगा दी थी। गोलियाँ बरस रही थीं, पर तार के खम्भे पटापट गिरते जा रहे थे। दमकल आग बुझाने आई, मगर उसे भी जलाकर सबने खाक कर दिया।

फतेहपुरी पर गोरी फौज दनादन गोलियाँ चला रही थी। भीड़ गली-कूचों में घुसकर पीली कोठी पहुँची, जो रेलवे एकाउण्ट क्लीयरिंग हाउस था। वहीं एक थानेदार कुछ सिपाहियों के साथ भीड़ पर पिस्तौल से गोली-वर्षा कर रहा था। भीड़ उस पर टूट पड़ी–पीली कोठी में आग लगा दी गई और थानेदार को उसमें झोंक दिया गया। उधर पहाड़गंज में गोरों के बैरक सुलगने लगे। एक ही दिन में अनेकों इमारतें जलाकर छार कर डाली गईं।

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शिशिर गिरफ्तार हो गया।

डाक्टर अमृतराय के घर में विषाद का यह दूसरा चरण खुला। दिलीप का निषेध प्रथम चरण था। उस चरण ने इस सुखी परिवार के जीवन में चिन्ता और उदासीनता की छाया उत्पन्न कर दी थी। डाक्टर अमृतराय और अरुणा दोनों के ही लिए यह चिन्ता थी। एक पोषित मुस्लिम बालक को अपना पुत्र घोषित करने पर किन सामाजिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है–इस पर अभी तक विचार करने का उन्हें अवसर ही न मिला था। अब एकाएक जैसे पहाड़ के समान कोई बाधा उनके सरल जीवन में आ गई। दिलीप का ब्याह मैं किस धर्मनिष्ठ हिन्दू लड़की से करूँ? कहाँ उसके आदर्शों पर पली लड़की को पाऊँ? पाऊँ भी तो कैसे उसे और उसके परिवार को इस प्रवंचना में रखू कि वह जन्मजात मुसलमान का बालक नहीं है–हमारा औरस पुत्र है? और यह बात प्रकट करने पर कौन निष्ठावान् हिन्दू उससे अपनी कन्या का विवाह करना पसन्द करेगा? और यदि दिलीप का ब्याह न हुआ तो छोटे लड़कों की ब्याह-शादी फिर कैसे होगी? क्या कहकर इस अपवाद का निराकरण किया जा सकता है कि बड़ा बेटा कुँआरा रहते हुए छोटों का ब्याह हो सकता है? छोटों का ब्याह न होगा तो फिर क्या होगा? लड़की का क्या होगा?"...डाक्टर-दम्पती को गहरी चिन्ता और व्याकुलता ने व्याप्त कर लिया।

परन्तु अभी तक यही चिन्ता पुरानी न पड़ी थी कि शिशिर की गिरफ्तारी और जेल-यात्रा ने उन्हें मर्मान्तक कष्ट दिया। शिशिर उनका सबसे छोटा बेटा था। सभी का प्यार उस पर था। उसका इस प्रकार जेल जाना इस परिवार पर वज्रपात-सा हुआ। एक गहरे शोक की छाया घर-भर में व्याप्त हो गई। अरुणा और करुणा ने रो-रोकर घर भर दिया। डाक्टर समझाते-बुझाते स्वयं भी रोने लगे।

सुशील कम्युनिस्ट था। उन दिनों अंग्रेज़ों से रूस मिल गया था। इसलिए कम्युनिस्ट अंग्रेज़ों के समर्थक बन गए थे। वे कांग्रेस के विरोध में आवाजें उठा रहे थे। समानता और