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बूढ़े और ठण्डे दिल नेता कर रहे थे-वे कह रहे थे कि ठहरो और प्रतीक्षा करो। पर सुभाष का गर्म रक्त प्रतीक्षा करने का धैर्य न रख चमत्कारिक ढंग से भारत से गायब हो चुका था। और अब उनकी जर्मनी और सिंगापुर या बर्मा से निरन्तर होनेवाली रेडियो-स्पीचों ने देश को हिला डाला था। अंग्रेज़ों ने गुलाम भारत को और भी कसकर भारत-रक्षा के नाम पर आर्डिनेन्सों की ज़ंजीरो में जकड़कर ज़बर्दस्ती युद्ध-साधन बना लिया था। उत्तेजना और असन्तोष से भारत की धमनियों का रक्त खौल रहा था। विद्रोह की प्रचण्ड बवंडर की सूचना भारत के प्रत्येक युवक के गर्म नि:श्वासों में मिल रही थी। जर्मन नाज़ी सेनाएँ एक के बाद दूसरे देश को आक्रान्त करती अबाध गति से बढ़ती जा रही थीं। फ्रांस कब्र में कराह रहा था। और ब्रिटेन की आँखें पथरा रही थीं और नाड़ी छूट रही थी। पूर्व में जापान ने भी युद्ध का शंख फूंक दिया था। अंग्रेज़ों के सुदृढ़ पूर्व-सिंहद्वार सिंगापुर पर जापानी सेना ध्वज फहरा चुकी थी। विद्रोही आन्दोलन भारत में अंग्रेज़ों का रहना हराम कर रहे थे। सर स्टैफोर्ड क्रिप्स जो भानमती का पिटारा लाए थे, उसे ठुकरा दिया गया था। चर्चिल सरकार की सिरदर्दी का अन्त न था। लोग कहने लगे थे-“ब्रिटेन भारत के हाथ-पाँव बाँधकर जापान के आगे डाल देगा।" उन दिनों भारत में धड़ाधड़ विदेशी सेनाएँ आ रही थीं-अमेरिकन,आस्ट्रेलियन, अफ्रीकन सभी सेनाएँ थीं। इस सेना का आगमन भारत की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए था। देश का सारा उत्तम खाद्य-पदार्थ इन गोरे सैनिकों को मिल रहा था। देश भूखा मर रहा था। देश-भर में दुधारु गायें और भैंसें तराजू पर तुलकर बिक रही थीं। उनका ताज़ा माँस खाकर और आकण्ठ मद्यपान करके ये सैनिक भारत में अनैतिकता का नंगा नाच नाच रहे थे। भारत के बच्चों को एक-एक बूंद दूध के लाले पड़े थे। अन्त में सातवीं अगस्त का चिरस्मरणीय दिन भी आया। बम्बई से अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में गाँधीजी की यह वाणी फूटी : “यदि मैं भारत, ब्रिटेन, अमेरिका तथा धुरी राष्ट्रों-समेत शेष संसार को अहिंसा की ओर ले जा सकता, तो मैं ऐसा कर डालता। पर यह चमत्कार तो केवल परमात्मा के हाथ में है। अब मेरे हाथ तो केवल यही है कि करूँ या मरूँ। आपको पत्नी-परिजनों का मोह त्याग देना होगा। संसार में सब कुछ छोड़ देना होगा। मैं चाहता हूँ कि अब विरोधी अंग मिलकर भारत को विदेशी शासन से मुक्त कर लें, चाहे इसके लिए उन्हें कितना भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। उनका एक ही उद्देश्य होगा-ब्रिटिश सत्ता को पदभ्रष्ट करना। मैं एक अस्वाभाविक प्रभुत्व का रक्तहीन अन्त करके एक नवीन युग का आरम्भ करना चाहता हूँ। यह हमारा अन्तिम संग्राम है, और इसमें दो महीने से अधिक समय न लगेगा। परन्तु लाखों मनुष्यों को एकसाथ आगे बढ़ना होगा और भारत दासता की जिन जंजीरों से बँधा है उन्हें तोड़ना होगा। हमारे संघर्ष में वे सभी कार्य सम्मिलित होंगे जिनसे वह शीघ्र एक दुर्दमनीय शक्ति का रूप धारण कर ले। संक्षेप में मैं कहूँगा-करो या मरो। "हम ब्रिटिश शासन का पूर्ण अन्त चाहते हैं। यह वह ज़हर है जिसे छूते ही सब चीजें दूषित हो जाती हैं। यह भावना बारह वर्षों से मेरे मस्तिष्क में काम कर रही है। मैं अब ठहर नहीं सकता। हमारे खतरे स्पष्ट हैं, परन्तु हमें उनसे डर नहीं है। भले ही देश में अराजकता