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रायसाहब को कुछ लिखना नहीं चाहती थीं। और रायसाहब ने घर जाकर एकदम चुप्पी साध ली थी। तैश में आकर वे अब रायसाहब को नीचा दिखाने या बदला लेने के विचार से कहीं सुशील का ब्याह तय कर डालना चाह रही थीं। पर डाक्टर रायसाहब के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें बहुत कुछ आशा भी थी। अब क्या होगा, इसी सोच-संकोच में अरुणादेवी घुल रही थीं–माया की ममता, शील और सम्मान उन्हें सब ओर से आहत कर रहे थे।

रायसाहब ने घर जाकर इस नए प्रस्ताव पर पत्नी के साथ विचार-विमर्श किया। बिरादरी की बात पर वे भी चिढ़ गईं। परन्तु रायसाहब ने कहा, “ये वाक्य डाक्टर साहब के तो हैं नहीं। वे तो हाथ पसारकर माया को माँग रहे हैं।"

गृहिणी ने कहा, "परन्तु माया हमारी बेटी है, कोई बिक्री का सौदा नहीं है कि एक ग्राहक से सौदा न पटा तो दूसरे से पटा दिया। बड़े भाई को जूता ओछा पड़ा तो छोटे ने पहन लिया। नहीं, अब इस सम्बन्ध में उस परिवार से बात करने की ज़रूरत नहीं है।"

रायसाहब ने माया से भी बातें की। माया ने दृढ़तापूर्वक इन्कार कर दिया। परन्तु माया की इन्कारी में माया के हृदय का जो प्रच्छन्न निगूढ़ प्रेमभाव दिलीप के प्रति था, उस पर उनकी दृष्टि नहीं गई। उन्होंने वही सोचा कि दिलीप के प्रतिक्रियास्वरूप ही माया विरोध कर रही है। उन्हें यह युक्तिसंगत और आत्मसम्मानमूलक ही प्रतीत हुआ कि वे उस परिवार में अब ब्याह की बात ही न करें।

परन्तु शीघ्र ही माया के वैकल्य का सही कारण उन्होंने जान लिया। जानकर वे बहुत चिन्तित हुए। उन्हें क्या करना चाहिए, यह निर्णय वे न कर सके। बहुत सोच-विचारकर उन्होंने इस सम्बन्ध में मौन ही धारण करना ठीक समझा। उन्होंने सोचा–समय के साथ परिस्थितियाँ बदलेंगी, तब देखा जाएगा। उन्होंने डाक्टर को भी कोई जवाब नहीं दिया। डाक्टर ने भी उन्हें नहीं लिखा। दो साल बीत गए। सुशील और दिलीप के लिए अनेक रिश्ते आए, पर उन्होंने नहीं लिए। उनके मन में जहाँ माया का प्रश्न शूल बनकर चुभ रहा था, वहाँ दिलीप का अस्तित्व एक बड़ी बाधा बना हुआ था। दिलीप के मन में जो एक गहरी वेदना थी उस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।

रायसाहब ने भी माया के ब्याह की चर्चा नहीं की।

24

कालचक्र अपनी गति पर घूमता चला जा रहा था। यूरोप युद्ध की ज्वाला में जल-भुनकर खाक हो रहा था। हिटलर थल, जल और वायु में सर्वग्रासी महाकाल बना नर-रक्त में स्नान कर रहा था। महाराज्यों और महाराष्ट्रों के गर्वीले राजमुकुट भूलुंठित हो रहे थे। ब्रिटिश साम्राज्य महासंकट से गुज़र रहा था। यूरोप का वह महान्मेध खिसकता हुआ एशिया और प्रशांत क्षेत्र को छू रहा था। भारत में अशान्त वातावरण भरा था। हरएक चीज़ महँगी हो रही थी। आर्डिनेन्सों और ज़ोर-ज़ुल्मों की भरमार हो रही था। कांग्रेस का नेतृत्व