और वही कर जो तू चाहे!" वह तो चाहता था कि एक बार फिर उसके सामने ब्याह का प्रस्ताव आए। परन्तु वह प्रसंग आया ही नहीं। दिलीप अपने दिल की बात खोलकर किसी से कह नहीं सका। मन ही मन घुटता रहा। अब उस घर-भर में सर्वत्र सूना लग रहा था। माता-पिता उससे नाराज़ थे। पर अभी तक उसे यह पता न था कि अरुणादेवी ने गुस्से में आकर जो बात कही है, वह यथार्थ में सत्य है। ऐसा होता या सच्ची बात का उसे पता लग जाता तो शायद वह इस परिस्थिति में आत्मघात ही कर लेता।
अब वह बहुधा नित्य ही बहुत जल्द सुबह उठकर जमुना-किनारे चला जाता, और कभी-कभी तमाम दिन वहीं पड़ा रहता। राष्ट्रीय संघ के नाम में भी अब उसे रुचि नहीं थी। संगी-साथी उसे कौंचते। वह गुमसुम सभी के उलाहने सुनता। अपनी विरह-वेदना किसी पर प्रकट करना उसके लिए शक्य न था। वह किसी को दिल की बात कहे, ऐसा कोई उसका हितू मित्र न था। यह उसने अब जाना।
माया के प्रति मन ही मन सुशील के मन में भारी मोह उत्पन्न हो गया था। उसे आशा बँध गई कि उसका विवाह माया से हो जाएगा। वह यद्यपि बड़े ही उच्छृखल स्वभाव का था, परन्तु इस प्रकरण से कच्चा था। वह अभी से मन में बड़े-बड़े मन्सूबे बाँधने लगा। माया फार्वर्ड लड़की है। वह पर्दे की रानी बनकर तो बैठने की नहीं। हम लोग कन्धे से कन्धा भिड़ाकर आन्दोलन करेंगे; बढ़-बढ़कर भाषण करेंगे। माया का चमत्कारिक व्यक्तित्व हमें नेतृत्व की चोटी पर खींच ले जाएगा। सुशील इस प्रकार अपने अस्त-व्यस्त जीवन को माया की कल्पना के सहारे व्यवस्थित करने लगा।
करुणा घपले में पड़ी थी। उसे भीतरी बातों का कुछ भी पता न था। जात-बिरादरी के झमेलों से वह दूर थी। दिलीप के जन्म के सम्बन्ध में भी वह कुछ नहीं जानती थी। माया उसकी भाभी बनकर आई है, बस यही उसके लिए काफी था। उसने यही सुना था–बड़े भैया से नहीं, सुशील भैया से उसका ब्याह होगा। यह सब अदला-बदली क्यों हो रही है, यह वह समझ नहीं पा रही थी; पर उसे सन्तोष था कि ब्याह चाहे जिस भैया से हो–वह भाभी तो रहेगी ही। उसके लिए यही यथेष्ट था। करुणा से ही बात फूटकर दिलीप के कान में पहुँची। दिलीप के लिए यह मर्मान्तक था। यद्यपि यह बात न दिलीप जानता था न सुशील कि रायसाहब ने अभी यह रिश्ता स्वीकार नहीं किया है। परन्तु सुशील में ज्यों-ज्यों इस रिश्ते के सम्बन्ध में उत्सुकता और उद्वेग के चिन्ह आते गए, त्यों-त्यों दिलीप का क्षुब्ध मन हाहाकार से भरता गया, जो शीघ्र ही सुशील के प्रति तीव्र प्रति-हिंसा और विद्वेष का रूप धारण कर गया।
अरुणादेवी को दिलीप की 'न' ने तो आहत किया ही था, रायसाहब की 'न' ने उन्हें और भी मर्माहत किया। वे बारम्बार अपने को धिक्कारने लगीं कि क्यो उन्होंने यह प्रस्ताव किया। क्यों फिजूल सुशील के मन में एक नई आशा, नई भावना की जड़ जमाई। वे आत्मग्लानि से भरी जा रही थीं। उन्होंने उस सुबह जब सुशील को बुलाकर कहा था, "मैं तेरा ब्याह माया से पक्का कर रही हूँ रे", तो उसने कुछ हँसकर, कुछ लजाकर निरीह बालक की भाँति कहा था, "जैसा तुम ठीक समझो वही करो माँ।" अब वे सोच रही थीं–यह ठीक नहीं हुआ। इतनी उतावली की क्या ज़रूरत थी! अब वे जब टालकर चले गए, अब 'न' कह दें तो क्या होगा? और यह भी 'न' ही है। परन्तु, वे अपनी ओर से अब इस सम्बन्ध में