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करारी चोट लगी। वह सूखे मुँह से भीतर लौट गई।

जब गाड़ी पर सब सामान लद गया तो सारा परिवार अपने सम्मान्य अतिथि को विदा करने एकत्र हुआ। इस समय दिलीप भी आ गया। एक ही रात में उसकी आकृति कुछ की कुछ हो गई थी। वह सबके पीछे, सबसे छिपकर चोर की भाँति खड़ा था। इसके विरुद्ध सुशील ने आज अपनी सदा की असावधान और लापरवाह आदत जैसे छोड़ ही दी थी। उसने सिल्क का कुर्ता पहना था। बालों को भी सँवारा था। वह सकुचाया-सा, लजाया-सा माँ के पास खड़ा था। माँ का प्रस्ताव उसने सुन लिया था।

माया और करुणा एक-दूसरे से आलिंगनबद्ध थीं। करुणा माया को छोड़ती ही न थी। वह बार-बार 'भाभी-भाभी' कहकर उसे जकड़ रही थी। "अब कब आओगी, भाभी?" बार-बार पूछ चुकी थी और बार-बार पूछ रही थी। माया जैसे रात-भर रोती ही रही थी, आँखें उसकी फूलकर गुल्लाला हो रही थीं। अन्त में करुणा को अलग किया, और अपने गले का नैकलैस उतारकर उसके कण्ठ में डाल दिया। अरुणादेवी के विरोध पर वह सिसकने लगी। पैरों पर गिर पड़ी। उस मूक रुदन के विरोध का सामर्थ्य किसमें था भला? अरुणादेवी ने कराहकर छाती पर हाथ रखा। और जब वह अरुणादेवी के अंकपाश में बद्ध, बाणविद्ध आहत हंसिनी की भाँति लड़खड़ाती हुई गाड़ी में बैठ रही थी, उसने एक बार अपनी सूजी हुई लाल-लाल आँखें उठाकर सबसे पीछे अपराधी की भाँति मुँह छिपाए खड़े दिलीप की ओर देखा। उसकी सूनी-सूनी, उन्मत्त दृष्टि उसकी फूली हुई आँखों में बरछी की नोक की भाँति घुस गई। वह झपटकर गाड़ी में घुस गई। आँखों के इस नए घाव को देखा सिर्फ दिलीप ने।

माया चली गई। परन्तु इस परिवार के प्रत्येक आदमी को आहत कर गई। दिलीप तो तीर की भाँति सीधा जमुना-तट की ओर चला गया, सुशील कोई गीत गुनगुनाता अपने कमरे में घुस गया। डाक्टर अपराधी-से चुपचाप नीचा सिर किए घर में लौट आए। करुणा रोती रही, और अरुणा जैसे अपनी मर्मपीड़ा को भुलाकर बेटी को भुलावा देती अपने शयनगृह में लौट आईं। इस समय केवल एक व्यक्ति इस घर में स्वस्थचित्त और आनन्दमग्न था। वह था शिशिर। उसने माँ से, करुणा से, पिता से, दिलीप से, सुशील से–सभी से पूछा, "भाभी आई थी तो चली क्यों गई?" किसी ने कोई जवाब न दिया, सिर्फ सुशील ने हँसकर कहा, "धत्!"

23

माया का वह वैकल्य और दिलीप का उन्माद देखकर भी किसी ने यह नहीं समझा कि दो तरुणहृदय प्यार का घाव खा गए हैं। माया के वैकल्य में सभी ने अपमान की वेदना देखी; पर दिलीप की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। इस घटना के बाद दिलीप एकबारगी ही माता-पिता के विराग और उपेक्षा का पात्र बन गया। पिता ने उससे बातचीत ही बन्द कर दी। और माँ ने उसे कह दिया, "तू मेरा लड़का नहीं है, जा, चला जा जहाँ तेरा जी चाहे