यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जन्म-नक्षत्र मनाएँ, तेरी कुछ धूमधाम करें, पब्लिसिटी करें। न कभी किसी सम्मेलन का सभापति ही मुझे बनाया गया।

आह-ब-ज़ारी बहुत की। सभापति बनाना तो दूर―साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में कभी मुझे निमन्त्रण तक नहीं मिला। पिछली बार मेरठ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन था। वहाँ मैं बिना बुलाए ही चला गया―इसलिए कि पास तो है ही, बहुत-से साहित्य-बन्धुओं के दर्श-पर्श हो जाएँगे। देखा सबने, पर किसी ने भीतर मंच पर चलकर बैठने तक को नहीं कहा। दो दिन बाहर ही बाहर घूमकर चला आया। सो ऐसी हालत में हर साल मैं ही अपना जन्म-नक्षत्र मना लिया करता हूँ। बन्धु-बान्धव, मित्र और कुछ साहित्य-परिजन आ जाते हैं―मेरे घर को जुठार जाते हैं, मेरे प्राणों को आनन्द दे जाते हैं। पर भेंटउपहार कभी कोई नहीं देता। इस बार न जाने यह क्या एक बदपरहेज़ी हो ही गई कि प्रगतिशील मण्डल ने हरिदत्त भाई के हाथ मुझे एक कलम भेंट दी। उसी समय मैंने यह स्वीकारोक्ति की थी कि इस कलम से पहली बार एक उपन्यास लिखूगा। और यह भी लिख दूँगा कि―कि यह उपन्यास इस कलम से लिखा हुआ है। सो हाथ इस कलम पर आ पड़ा और वह स्वीकारोक्ति भी याद पड़ गई। बस, एक पन्थ दो काज। उसी कलम से 'दर्द की यह तस्वीर' खींची गई है। इस तस्वीर में दर्द जितना है वह मेरे कलेजे का है, और प्यार जितना है वह प्रगतिशील साहित्य-मण्डल के सदस्यों का―जो उन्होंने अपने कलम में भरकर मेरे जन्म-नक्षत्र पर भेजा था। 26 अगस्त, 1954

―चतुरसेन