का मज़ा लूंगी।
पर यहाँ तो यह व्यंग्य-विनोद कुछ हुआ नहीं। रायसाहब से जिस ढंग पर दिलीप ने बात खत्म की, उससे रायसाहब बेहद नाराज़ हो गए। वे बिरादरी से खारिज हैं। उनकी बेटी को ब्याहने से बिरादरी नाराज़ होगी। यहाँ तक दकियानूसी विचार दिलीप के मुँह से सुनने की उन्हें आशा न थी। वे अपनी बेटी को भीतर से बाहर तक जानते थे, इसी से वे साथ में माया को लाए थे। उन्हें विश्वास था–माया को देख-समझकर सब ठीक हो जाएगा। दिलीप ऐसा मूढ़ न होगा।
माया ने जब यह सुना तो दर्प और आत्मसम्मान दोनों ही ने उसे दिलीप के पास जाने को प्रेरित किया। माँ की घड़ी देने का बहाना था। वह पिता के अपमान का बदला लेना चाहती थी–कुछ तीखा व्यंग्य भी करना चाहती थी। यदि उसे मालूम होता कि वह असल मुसलमान माता-पिता का बालक है तब तो वह पिता के अपमान का पूरा ही बदला चुका लेती। असल में वह बिना ही हथियार शत्रु जीतने चली थी।
परन्तु वहाँ कुछ और ही हो गया। माया ने देखा–एक गौरवर्ण, तेजस्वी, छरहरे बदन का लम्बा-दुबला तरुण, नोकदार नाक और पानीदार, तेज, गहरी काली आँखें, सुर्ख पतले होंठ, मज़बूत ठोड़ी और मांसल गर्दन, विशाल वक्ष और मुट्ठी भर कमर, सीधा-सरल वेश–तो माया ने आपा खो दिया।
माया इस तरुण की विभूति को अपने आँचल में भर ले जाने को आई है पर उसे सूखा लौटना पड़ रहा है। कितना दुर्भाग्य है! कितना अपमान है! पहले भी भला कभी कोई हिन्दू कुमारी इस भाँति लांछना की पात्र बनती थी? भला कभी वह इस प्रकार निराश होकर लौटने के लिए पति-घर में आती थी? हिन्दू वधू तो गाजे-बाजे के साथ, हीरे-मोतियों से सुसज्जित, ससुराल की आँखों पर पैर रखकर श्वसुरगृह में प्रवेश करती है। नई सभ्यता और नए आलोक ने ही उसे इस भाँति अपमानित किया। वह दिलीप को न व्यंग्यबाणों से विद्ध कर सकी, न उसके हृदय में सूई चुभा सकी, न चिकोटी काट सकी। माता की दी हुई घड़ी वहाँ रख और आँखों में एक चुभन भर वहाँ से भाग आई।
भाग आई, यह तो ठीक, पर अपने रक्त की प्रत्येक बूंद में दिलीप की यह मूर्ति भर लाई। प्रेम और दर्द अब संग्राम करने लगे, और माया उनकी चपेट में घाव खाने लगी। वह और राह न पाकर सीधे अपनी शय्या पर पड़ गई।
उसी समय करुणा ने आकर कहा, "उठो, भाभी, हम सिनेमा चल रहे हैं। माँ तैयार है। जल्दी करो।" हाय रे भाभी! यह अबोध बालिका नहीं जानती कि यह मधुर सम्बोधन उसे कहाँ घायल कर रहा है। उसने उसे भाभी ही बना लिया है। जीवन के घात-प्रतिघातों से इस सरल-तरल व्यक्ति को क्या सरोकार है!
माया ने आँखें पोंछते हुए कहा, "इस समय न जा सकूँगी, माँ से कह दो।"
"अरे, तुम्हारी तो आँखें सूज रही हैं, लाल चोट हो रही हैं, क्या तबीयत खराब है?"
"हाँ, बहुत खराब है, ज़रा सोने से ठीक हो जाएगी।"
"तो मैं माँ को बुलाती हूँ।" माया का तनिक भी अनुरोध न मान करुणा अरुणादेवी को बुला लाई। अरुणा के साथ आए डाक्टर भी, रायसाहब भी। और कोई न समझे, पर रायसाहब ने पुत्री की चोट को समझ लिया। डाक्टर भी कुछ-कुछ समझ गए, वे मौन ठगे-