उसके पास जो अब नहीं रहा? उसने बहुत सोचा, पर कोई भी तो कूल-किनारा उसे नहीं मिला। वह कुछ भी तो नहीं समझ पाया कि उसकी क्या स्थिति है और वह क्या करे।
बहुत देर तक वह वहीं चुपचाप बैठा रहा। एकाएक उसे योगिराज का स्मरण हो आया। कैसा झूठा, मक्कार और धूर्त था वह! उसकी श्रद्धाभावना पर कैसा करारा आघात कर गया वह! धर्म, कर्म, योग, व्रत, उपवास, नियम–सबकी एक रूपरेखा-सी जैसे उसे छू गई। उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो अब तक वह व्यर्थ के बोझ को ढोता फिर रहा था, आज उसे अनायास एक निधि मिली, और मिलते ही छिन गई। वह गुन-गुना उठा–"आज ही तो था मिलन-क्षण, आज ही हो गई विदाई!"
झर-झर, झर-झर आँसू उसकी आँखों से झरने लगे। जीवन में प्रथम बार इन अश्रुकणों ने उसके नेत्रों को सजाया था। उन आँसुओं से स्नातपूत माया का दिव्य शरीर जैसे उसे उसके बिलकुल ही निकट दिखने लगा। उसने दोनों हाथ उन्मुक्त आकाश की ओर फैलाकर अस्फुट स्वर से कहा–"आओ, आओ, आओ माया, तुम मेरी हो, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।" और उसका मुख पृथ्वी पर झुक गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसकी नींद में ताज़ा फूलों का सुरभित ढेर कहीं से आ पड़ा है और उन्हीं फूलों के ढेर में माया के चरण हैं, उन फूलों से भी अधिक सुरभित कोमल और प्रिय! और उसके विदग्ध होंठ उन चरणों को चूम रहे हैं, सम्पन्न हो रहे हैं, आप्यायित हो रहे हैं, परिपूर्ण हो रहे हैं!
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और माया? उसने यह सोचा भी न था कि जो कुछ हो गया वही हो जाएगा। पिता का दिलीप ने मूढ़ की भाँति अपमान किया था। इसलिए वह दिलीप का अपमान करने ही उसके पास गई थी। दिलीप को उसने इससे प्रथम कभी देखा भी न था। उससे उसकी विवाह की चर्चा चल रही है, यही वह जानती थी। डाक्टर-परिवार की गरिमा से वह परिचित थी। एक बार वह अरुणादेवी की स्नेहमयी गोद में प्यार पा चुकी थी। पर वह बहुत पुरानी बचपन की बात थी। दिलीप की बाबत उसने इतना ही सुना था कि वह बड़ा ही कट्टर हिन्दू है। परन्तु मन से माया को यह बात प्रिय थी। वह अपनी आँखों से यूरोप के जीवन को देख आई थी; उसे जीवन में स्पर्श कर आई थी। वह उसके गुण-दोषों से भी परिचित थी। इसी से आर्य-सभ्यता, हिन्दू संस्कृति पर उसकी श्रद्धा थी। अपनी श्रद्धामयी माता का उस पर बहुत प्रभाव था। पर वह प्रगति की शत्रु न थी। नए विचार, ज्ञान-विज्ञान की विरोधिनी न थी। न वह कुरीतियों की समर्थक थी। रूढ़िवाद से उसे घृणा थी। दिलीप इतना उच्चकोटि का विद्वान्, दर्शनशास्त्र का ग्रेजुएट होने पर भी अपनी हिन्दू संस्कृति पर आस्था रखता था। इससे वह मन ही मन दिलीप के प्रति श्रद्धाभाव रखने लगी थी। दिल्ली को जब वह चली थी तो उसके मन में एक गुदगुदी हो रही थी। वह सोच रही थी–क्या हर्ज है, ममी की घड़ी जब दूंगी तो ज़रा नोक-झोंक भी होगी। देलूंगी बाबू साहेब की फिलासफी। ज़रा व्यंग्य करूँ, जलाऊँगी, चिकोटी काटूँगी, सूई चुभाऊँगी! फिर उस तड़प