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था कि वह दौड़कर जाए और रायसाहब से माफी माँग ले। पर यह भी उससे न बन पड़ा। वह सोचने लगा–यह भी एक भद्दा नाटक-सा हो जाएगा। वह प्रत्यक्ष देखने लगा कि कैसे रायसाहब, जो ऐसे प्यार और ममता से बात कर रहे थे, घृणा से भरे हुए उसके पास से लौट गए। चलती बार जो वे 'खुश रहो' कह गए, वह उसे अपने लिए शुभाशीर्वाद नहीं, ऐसा प्रतीत हुआ कि प्यार करते-करते लात उसकी पीठ पर मारकर वे चले गए हैं। उसी लात से पीड़ित-मर्माहत वह तरुण मेधावी युवक दिलीप अपने उस सूने कमरे में बड़ी देर तक जड़ बना खड़ा रहा।

रायसाहब ने संक्षेप में माया को स्पष्ट रूप से अपनी बातचीत का निष्कर्ष बता दिया। सदैव का समुद्र की भाँति हँसमुख उनका मुँह भरे हुए बादलों के समान गम्भीर और भारी हो गया था, यह माया से छिपा न रहा। मुस्कराकर बल्कि हँसते-हँसते ही उन्होंने बेटी से दिलीप की बातचीत का सारांश कहा, पर माया को यह साफ-साफ भास गया कि दिलीप ने उसके पिता का घोर अपमान कर डाला है। और वह विचारों का चाहे जैसा है तथा शिक्षित भी चाहे जितना है, पर सभ्य नहीं। पिता की सब बातें सुनकर उसने अपना कुछ भी मत व्यक्त नहीं किया। सूखे कण्ठ से उसने कहा, "किस गाड़ी से चलना होगा बाबूजी?" सूखे कण्ठ से क्यों? इसलिए कि उसके आते ही जिस सरल-तरल मुख ने उसे 'भाभी' का प्रिय सम्बोधन किया था, जिस सुखद मधुर ध्वनि ने उसे व्यामोहित किया था, वह 'भाभी' सम्बोधन उसके अन्तर में विद्रूप करके हा-हा करके हँस उठा। छी, छी! कैसी लज्जा की बात है! अब वह कैसे करुणा को आँख उठाकर देखेगी। और उसने यदि फिर सम्बोधित किया तब?

परन्तु इतना ही नहीं, अरुणादेवी ने जो उसे माँ की ममता से अपनी छाती से लगाया था सो? आज ही तो वह प्रतिमा एक सिंहासन पर आरूढ़ हुई, और आज ही च्युत हो गई। वाह री विडम्बना! वह सोचने लगी। उसका यहाँ इस भाँति आना-कितनी खराब बात हुई! पुराने विचार के लोग, जो रिश्ते-सम्बन्ध के मामलों में आन मानते थे, क्वारे मढ़े लड़कियाँ ससुराल नहीं जा पाती थीं सो ही ठीक था। यह सब क्या हो गया भला! एक वाक्य, एक भाव, एक मूर्ति, एक सम्बन्ध, एक सम्बोधन, एक प्यार-उसके रक्त-बिन्दुओं ने जो उसकी चेतना पर अंकित किया उसे वह अभी इसी क्षण कैसे धो-पोंछकर साफ कर दे! यह तो उसके बूते की बात ही नहीं है, अब कैसे वह उस प्यार को, आदर को, ममता को, आत्मीयता को सहन कर सकती है! उसका मन हुआ–इसी समय, इसी क्षण वह किसी जादू के बल पर यहाँ से लोप हो जाए चुपचाप, बिना किसी के जाने चली जाए–सो ही अच्छा है। और उसकी अन्तरात्मा पर उस प्यार और ममत्व का जो भार लद रहा था उसे वह वहीं किसी तरह उतार फेंके। यह भी उसके बूते की बात नहीं है–इसी से उसका कण्ठ-स्वर सूख गया।

परन्तु जीवन में पहली बार रायसाहब ने बेटी का वह सूखा कण्ठ-स्वर सुना। राय राधाकृष्ण की वह साधारण बेटी न थी। उनके प्राणों का सम्पूर्ण आवाहन उस कोमल, अमल, धवल, उज्ज्वल आलोक-प्रतिमा में था। वे जानते थे कि माया कितनी सहृदय, भावुक और प्रतिभा सम्पन्न है। आत्मसम्मान भी उसका कितना है। वे स्वयं भी बड़े मानधनी थे। अब जो मूर्ख दिलीप ने छोटे मुँह बड़ी बात कह डाली सो इसमें उनका अपना जो इतना अपमान हुआ जिसके कारण रायसाहब एक आहत योद्धा की भाँति कराहकर दिलीप के