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न?"

"देखती हूँ, पहले की बेटियाँ खाती भी तो थीं मन-भर, मैं तो ज़रा-सा खाती हूँ!"

"वह भी मेरे बूते का नहीं बेटी, तुझे तो धकेलकर निकाल बाहर करना ही होगा।" रायसाहब हँसते-हँसते रो पड़े। बेटी को खींचकर उन्होंने छाती से लगा लिया। विरोध सारा खत्म हो गया। माया ने कहा–

"मैं सब ठीक कर लूँगी बाबूजी। लेकिन लौटेंगे कब?"

"बस, इतवार की रात को।"

"तो चाय ले आऊँ?"

"ले आ।" लेकिन ज़रा एक तार लिखकर केशव को स्टेशन भेज दे। तार में इतना ही लिखना—हम लोग आ रहे हैं। एक नया टाइम-टेबिल भी ले आएगा।

"अच्छा।"

माया की ममी का नाम था कुमुदेश्वरीदेवी। सीधे मिज़ाज की सरमना स्त्री थी। मोटी बहुत थी और राय साहब सदैव उसका मज़ाक उड़ाया करते थे। इस विलायती परिवार में वही एक आदर्श हिन्दू रमणी थी। पति-पुत्री के साथ विलायत जाकर भी उन्होंने अपनी निष्ठा को छोड़ा नहीं था। तीर्थ, व्रत, उपवास, दान, कथा-सभी चलता था। पुजारी रोज़ आकर उन्हें जब तक ठाकुर का चरणामृत नहीं दे जाता था, वे अन्न ग्रहण नहीं करती थीं। पुत्री उनकी इकलौती ही थी। माया के बाद पुत्र हुआ। किन्तु वह नौ वर्ष का होकर दगा दे गया। तब से मुन्नी माया पर उसका दूना मोह हो गया था। माया के ब्याह की बड़ी चिन्ता थी। पुराने विचार की होने पर भी उसने कभी भी बेटी के स्वतन्त्र जीवन, नए विचारों का विरोध नहीं किया। जब सुना कि पिता-पुत्री दिल्ली जा रहे हैं तो उसे प्रसन्नता भी हुई, सन्तोष भी हुआ। उसने हँसती आँखों से बेटी को देखकर कहा, "बेटी, नादान नहीं हो तुम, समझदारी से बात करना। ब्याह से पहले ससुराल जाना हमारे खानदान में नई बात हैं, पर खैर, नए ज़माने में सभी नई बातें हो रही हैं। दिलीप अच्छा लड़का है, पूरा धर्मात्मा। मैं देख चुकी हूँ उसे। यह घड़ी मेरी ओर से देना उसे। और मेरा बहुत-बहुत आशीर्वाद कहना।"

उसने बेटी को बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। लाड़ किया, जैसे वह छोटी-सी बच्ची ससुराल जा रही हो।

डाक्टर तार पाकर घबरा गए। अब क्या करें? कैसे रायसाहब के सामने जाएँ? परन्तु रायसाहब के सामने आते ही उनका सब संकोच दूर हो गया। रायसाहब ने उनका हँसकर आलिंगन किया। माया ने झुककर चरण-रज ली। फिर रायसाहब ने हँसते-हँसते कहा, "देखता हूँ–साहबज़ादे पर कुछ गहरा रंग चढ़ा है।"

"क्या कहूँ, आपके सामने शर्मिन्दा होना पड़ा। एक ही ज़िद्दी लड़का है।"

"यही तो देखने आया हूँ। पर इसमें शर्मिन्दा होने की क्या बात है! मैंने सोचा, माया भी चले तो अच्छा है।"

"बिटिया को ले आए बहुत अच्छा किया।" उन्होंने पारिजात पुष्प की भाँति शोभायमान माया पर एक नज़र डाली। उसके मन में एक चीत्कार उठा–क्या कैसे रूप-गुण की खान सुशीला पत्नी को दिलीप इन्कार कर देगा? फिर तुरन्त ही दिलीप के जन्म का रहस्य उनके हृत्पटल पर अंकित हो गया। भय से उनका हृदय काँप गया। वे सोचने लगे–