मीठा हो जाएगा।" और साथ ही उसकी मादक मुस्कान,उज्ज्वल दृष्टि देखकर दिलीप हँस पड़ता। बहिन-भाई में सुलह हो जाती थी।
सुशील के साथ बहस करने में शिशिर भी बहिन के दल में आ मिलता। परन्तु सुशील शीघ्र ही आवेश में आकर नाटकीय ढंग से मेज पर घुसा मार-मारकर और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर अपने कम्युनिस्ट विचारों को प्रकट करता। बुजुर्गों को कोसता। मज़दूरों के अतिरंजित चित्र खींचता। पूँजीपतियों की मिट्टी पलीत करता। उसे उत्तेजित करने में करुणा को मज़ा आता था। उत्तेजित होकर बहस करते-करते सुशील तेज़ी से बाहर भाग खड़ा होता था। तब मैदान शिशिर और करुणा के हाथ रहता। दोनों खिल-खिलाकर हँसते और फिर या तो शिशिर एक कविता सुनाता था, या करुणा कोई गीत गाती, बहुधा इसी समय कोई पिक्चर देखने का भी प्रोग्राम बन जाता था।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि डाक्टर अमृतराय ने बच्चों को बहुत स्वाधीनता दे रखी थी। इसी से उनके मौलिक विचार पनप गए थे और डाक्टर का घर अन्तर्राष्ट्रीय विचारधाराओं का एक अखाड़ा हो गया था। डाक्टर एक शान्त प्रकृति के व्यवसायी पुरुष थे। उन्हें अपने व्यवसाय से ही फुर्सत नहीं मिलती थी। फिर बच्चों की विचारधारा नैसर्गिक रूप से विकसित हो, इसमें वे बाधा देना पसन्द भी नहीं करते थे। इसी से इस तरुण पीढ़ी में ये भिन्न-भिन्न रंग खिले। फिर भी एक बात थी। सभी भाई-बहिन आपस में प्रेम से रहते थे। विचारों की भिन्नता ने उनके दिलों में अन्तर नहीं डाला था।
अरुणादेवी रात-दिन एक तपस्विनी कर्मठ गृहिणी की भाँति घर-गृहस्थी में लगी रहतीं। बच्चों से वे प्यार करतीं। डाँट-डपट करना उनके स्वभाव में न था। सभी बच्चे तरुण हो गए थे, समझदार हो गए थे पर अरुणा का व्यवहार तो उनसे वैसा ही था। और सुशिक्षित तरुण बालक भी माँ की गोद में बैठकर छोटे शिशु के समान ही उनकी आज्ञाकारिता और अधीनता में प्रसन्न होते थे। इस प्रकार इस परिवार की गाड़ी आगे बढ़ी चली जा रही थी। यह एक नए युग का नया परिवार था, जिसका सारा ढाँचा ही पुराने युग से भिन्न, एक नए रूप में विकसित हुआ था।
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कोई एक योगिराज शहर में आए हुए थे। शहर में उनकी चर्चा खूब धूमधाम से थी। बहुत-से पढ़े-लिखे मूर्ख उनके चक्कर में फँसे थे। उनके विषय में अनेक बातें प्रसिद्ध हो गई थीं उनकी आयु कई सौ वर्ष की है; केवल पवन-भक्षण करते हैं; चाहे जो विष खा लेते हैं, उनका कुछ नहीं बिगड़ता; कभी-कभी महीनों सोते नहीं। एक समय में अनेक स्थानों में देखे जा सकते हैं; सर्वज्ञ हैं; बात करते-करते लोप हो जाते हैं, चाहे जब बालकृष्ण का रूप धारण करके लोगों को दर्शन देते हैं, आदि-आदि। परन्तु इन सब गुणों का तो केवल बखान ही होता था उसमें और एक गुण था जिसके लिए लोग उनके पीछे चिपके रहते थे। वह गुण था कीमियागिरी का। आमतौर पर प्रसिद्ध था कि वे तुरन्त सोना बना लेते हैं और लोगों को