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भारी प्रभाव पड़ रहा था—उनके उत्कृष्ट गुण, तल्लीनता, उद्देश्यों की पवित्रता सभी देशों के तरुणों के लिए आदर्श बनती जा रही थी। उनका सहयोग और दृष्टान्त सम्मुख रखकर संसार के प्रगतिशील तरुण जनवाद के प्रति सम्मान तथा साम्राज्यवाद के प्रति तीव्र घृणा करना सीख रहे थे।

भारत में भी, प्रत्येक शहर में ऐसे साम्यवादी दल बनते जा रहे थे। सरकार की उन पर कड़ी नज़र थी। साम्यवादी होना अक्षम्य अपराध—राजद्रोह जैसी वस्तु मानी जा रही थी। परन्तु संसार-भर में राजद्रोह की परिपाटी ही चल गई थी। और प्रगतिशील तरुण अपनी मनमानी करते ही थे-न फाँसी से डरते थे, न जेल से। वास्तव में वे अब सरकार के भय की वस्तु बन चुके थे।

सुशील डाक्टर का दूसरा बेटा था, और सच्चे अर्थों में सबसे बड़ा बेटा। कट्टर साम्यवादी था। राजनीति और अर्थशास्त्र में एम. ए. करके वह अब कहीं कोई नौकरी या व्यवसाय करने की अपेक्षा मज़दूरों के संघ में भाषण देने, उन्हें हड़ताल के लिए उत्तेजित करने और पूँजीपतियों का विरोध-प्रदर्शन करने में ही अधिक समय व्यतीत करता था। उनके संगी-साथियों में अनेक तरुण और तरुणियाँ थीं परन्तु वह सबका नेता था वह एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित घराने का तरुण था। उच्चशिक्षा प्राप्त था। मेधावी,सहिष्णु तथा क्रियाशील था। उसका पतला-दुबला शरीर, पतले संपुटित ओष्ठ, छोटे किन्तु ज्योतिर्मय नेत्र, बढ़ा हुआ मस्तक, बिखरे हुए बाल, लापरवाही से पहने हुए कपड़े सब मिलाकर उसके व्यक्तित्व में आकर्षण उत्पन्न कर देते थे। उसे देखते ही भान होने लगता था कि यह एक ऐसा तरुण है जिसे अपने ऊपर गहरा विश्वास हो।

शिशिरकुमार की प्रवृत्ति सबसे निराली थी। वह अभी केवल इक्कीस वर्ष का तरुण था, पर अत्यन्त गम्भीर, एकान्तप्रिय और अल्पभाषी। वह बहुत कम कहते देखा जाता था—पर ऐसा मालूम होता था जैसे घर-भर में सब कोई उससे डरते थे, यहाँ तक कि पिता भी। वह कभी सारे दिन दरवाज़ा बन्द करके अपनी कोठरी में पड़ा रहता था। कुछ लिखता-पढ़ता रहता। कभी-कभी कविता भी करता। गाँधी-दर्शन उसके अध्ययन की प्रिय वस्तु थी। गाँधीजी से वह प्राय: पत्र-व्यवहार करता। एक बार तो उसका इरादा गांधीजी के आश्रम में जाकर रहने का भी हो गया था। पर अरुणादेवी की आँखों के आँसू देखकर रुक गया। वह इस समय एम. ए. फाइनल में पढ़ रहा था। शरीर का वह भी दुबला-पतला था। चेहरा वैसा सुन्दर न था, पर आकर्षण था। बहिन करुणा से उसकी बहुत पटती थी। दोनों बहुधा बहस करते-करते तीव्र हो जाते। पर फिर करुणा के हँसते ही शिशिर के होंठों पर भी हास्य फैल जाता। करुणा को उसका बहुत ख्याल रहता। वही यत्न से उसके खाने-पीने का ध्यान रखती। शिशिर अपने में बहुत ही लापरवाह था—कपड़े-लत्तों की भी कुछ परवाह न करता। उसका कमरा सदैव अस्त-व्यस्त रहता; पर करुणा सदैव यत्न से उसे व्यवस्थित करती थी। शिशिर भी करुणा को बहुत प्यार करता था। जब कभी भी वह बाहर से आता, करुणा के लिए कुछ न कुछ अवश्य ही लाता था।

बहुधा वह उपवास करता। कभी-कभी मौन भी। कभी वह केवल नमक डालकर मोटी रोटी खाता—कभी उबली तरकारी स्वास्थ्य और संयम के नाम पर। वह अपने पिता की राय से भी बढ़कर गाँधीजी को ही प्रमाण मानता था। डा. अमृतराय उसे गाँधी बाबा कहते और