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"तो यह बात पहले सोचनी थी।"

"ज़रूर सोचनी थी। पर तब तो इन बातों का ख्याल ही नहीं आया। और उस समय हुस्नबानू को देखकर तो मैंने जैसे आपा खो दिया।"

"अभी शायद कहीं चीस-चसक बाकी है, क्यों न?"

"तुमसे तो झूठ न बोलूँगा अरुणा, है तो, जड़मूल से तो कभी मिटी ही नहीं।"

"तो अभी तो वह भी दुनिया में जीती-जागती है। क्यों न उसका बेटा उसे दे दिया जाए? उसकी ज़मीन-जायदाद तो हमने छुई भी नहीं है।"

"नहीं छुई है। पर क्या यह सम्भव हो सकता है? जानती हो, अपने कलेजे के टुकड़े को हमारी गोद में डालकर उस स्त्री ने कितनी वेदना पल्ले बाँधी है! फिर तब से एक बार भी हमारी ओर उसने देखा ही नहीं, बेटे को याद किया नहीं। अब हम वचन भंग करें, उसकी प्रतिष्ठा का भण्डाफोड़ करें? ना यह हमसे न होगा।"

"तो दिलीप भी अब नासमझ नहीं। उसी से सब खोलकर कह दो।"

"अरे, वह पक्का हिन्दुसभाई मुसलमानों को तेल में होकर देखता है। राष्ट्रीय संघ का जनरल सेक्रेटरी, हिन्दू धर्म का नेता है। वह सुनेगा तो शायद उसके हृदय की धड़कन ही बन्द हो जाएगी, या अजब नहीं वह क्रोध करके हमारा खून कर डाले।"

"ऐसा भी कहीं हो सकता है! अच्छा, तुम नहीं तो मैं कहूँगी।"

"ये बातें सब फालतू हैं अरुणा, हमें यह ज़हर का घूँट पीना ही होगा। हम यह भेद जीते जी खोल नहीं सकते। भेद खोलने में हमारा सर्वनाश होगा। दिलीप का तो जीवन नष्ट ही हो जाएगा, साथ हम भी लोगों की नज़र में गिर जाएँगे।"

"तो फिर होने दो हिन्दू कुमारी का बलिदान। हिन्दू की बेटी तो बलि के लिए ही पैदा होती है। हिन्दू ही दूल्हा होता–लुच्चा और बदमाश–तो वह कितना दु:ख देता! घर-घर तो मैंने आँसुओं से गीले चेहरे देखे हैं। दिलीप कम-से-कम ऐसा पशु तो नहीं है। कोई भी स्त्री उसे पाकर सन्तुष्ट होगी। फिर मुगलों के ज़माने में मुगल बादशाहों ने तो हिन्दू कुमारियों से शादी की थी। अब इतना सोच-विचार न करो। ब्याह कर डालो। पानी जितना उलीचा जाएगा, गन्दा होगा।"

"इधर एक सुविधाजनक बात भी है।" डाक्टर ने जैसे अचानक याद करके कहा।

"क्या?"

"राय राधाकृष्ण बैरिस्टर हैं।" कन्या उनकी बाईस साल की है। एम.ए. है। विलायत-रिटर्न है, लड़की ने भी विलायत पास किया है। सुन्दरी है। जात-पाँत, बिरादरी को ये नहीं मानते। यों हैं हमारी बिरादरी ही के, पर मुद्दत से बिरादरी से बाहर हैं, माडर्न विचार के हैं। धन-दौलत खूब है। वे बड़ा ज़ोर दे रहे हैं, क्यों न रिश्ता ले लूँ!"

"लड़की तो मैंने देखी है, पसन्द है। यही ठीक होगा। तुम्हारे मन की ग्लानि भी अधिक न होगी। यही करो। पर उससे रिश्ता करके पीछे हमारे बच्चों के रिश्तों में तो विघ्न न होगा?"

"शायद हो, परन्तु ज़माना बदल गया है। अब पुराने विचार खत्म हो रहे हैं। मैं समझता हूँ मैं सब ठीक कर लूँगा। फिर मैं इस मामले में बिरादरी के पंच-चौधरियों को भी घसीटूँगा। यह काम उन्हीं की राय से तो होगा।"