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छिपी हुई परायेपन की गन्ध थी जो जाती न थी। क्या जाने इसी का कोई मनोवैज्ञानिक प्रभाव बालक दिलीप पर पड़ा हो।

डाक्टर की आय अच्छी थी। पर खर्च भी कम न था। रहन-सहन उसका भले आदमियों जैसा था। एक कार भी थी, एक घोड़ागाड़ी, तीन-चार नौकर भी। इस कारण वे कुछ ज़्यादा बचा न पाते थे। फिर बच्चों की शिक्षा का खर्च। दिलीपकुमार की एस्टेट की आमदनी को उन्होंने अभी तक छुआ न था। दिलीप को कभी-कभी कागजात पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे, और डाक्टर उसकी जायदाद के शुरू से ही वली थे। नवाब ने बालक की शिक्षा और परवरिश के लिए एक अच्छी रकम की प्रथम ही पृथक् व्यवस्था कर दी थी। परन्तु डाक्टर ने अभी यह बात भी दिलीप को नहीं बताई थी। वे यह भी सोचते थे कि ऐसा करने से सब बच्चों से उसे पृथक करना पड़ेगा। पृथक तो वह बालक स्वभाव से ही हो गया था—होता जा रहा था।

अब, जब वह तेरह वर्ष की दहलीज को पार करके शैशव से किशोरावस्था को पहुँचा तो डाक्टर-दम्पती के मन में अनेक संघर्षों ने जन्म लिया। प्रथम तो यह कि बालक की एस्टेट क्या उसे अकेले ही को दी जाए? क्यों न और बालक भी उसके समान भागी बनें। जब डाक्टर-दम्पती ने उसे छाती से लगाकर अपने पुत्र की भाँति ही लालन-पालन किया है तो वही अकेला क्यों उस सम्पत्ति का अधिकारी बने? निस्सन्देह वह सम्पत्ति उसके नाना की थी, माँ की थी उसकी अपनी थी; पर उसकी इस अधिकार-भावना पर डाक्टर-दम्पती जब-जब विचार करते, तब-तब उनका मन विरक्ति से भर उठता। कहना चाहिए, एक हद तक यह विरक्ति बालक के प्रति एक ईर्ष्यापूर्ण उपेक्षा में बदल गई थी, यद्यपि वह अभी बहुत ही अविकसित और प्रच्छन्न थी।

परन्तु बालक को इन सब बातों का पता न था। उसे यह शानो-गुमान भी न था कि डाक्टर-दम्पती उसके सही असल माता-पिता नहीं हैं। बालक को लेने के समय ही डाक्टर ने नवाब से यह तय कर लिया था कि बालक सर्वथा हिन्दू संस्कृति में, हिन्दू की भाँति उनके असल पुत्र की तरह पाला जाएगा। इस बात को स्वीकार करने के सिवा नवाब की कोई गति थी भी नहीं।

नवाब मुश्ताक अहमद अब मर चुके थे। परन्तु जब तक ज़िन्दा रहे उन्होंने कभी बालक को देखने या डाक्टर से मिलने की चेष्टा नहीं की। एक प्रकार से उन्होंने दिल्ली छोड़ ही दी थी और वे कराची ही में बस गए थे। बालक का कुशल-मंगल पूछने को कभी उन्होंने एक खत भी नहीं लिखा। नहीं कह सकते कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। डाक्टर को सुपुर्द करने के बाद बालक को वे एक प्रकार से भूल ही गए। यह उन्होंने शायद इसलिए किया हो कि वे नहीं चाहते थे कि डाक्टर के मन में यह अंकुर कायम रहे कि वह पराया बालक है, या मुसलमान बालक है। माता-पिता की गहरी एकता बालक के प्रति डाक्टर-दम्पती में उत्पन्न हो जाए, इसी भावना से एकबारगी ही बालक से विमुख हो गए थे। नवाब के मरने की खबर भी बहुत देर में मिली। डाक्टर ने भी अपनी तरफ से नवाब से कोई सम्पर्क जारी रखने की चेष्टा नहीं की। उन्हें भेद खुलने का भय था। अपनी बिरादरी का भय भी था। नवाब के मर जाने से वे एक प्रकार से निश्चिन्त हो गए।

हुस्नबानू इस बीच कभी एक बार भी दिल्ली नहीं आई। उसकी कोई खोज-खबर भी