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“बारह बजे तक।" ज़ीनत चुपचाप मुस्कराती रही। एक रहस्य उसके होंठों में खेल गया। हुस्नबानू ने कुछ आशंकित होकर पूछा, “बहिन, क्या इसमें कुछ राज़ है?" "किसमें?" “कि वे रात मेरे यहाँ रहे नहीं। कपड़े तक नहीं खोले, इस तरह बैठे रहे जैसे गैर, मुलाकाती।" “बहिन, नवाब हैं, रईस हैं, कोई ऐरे-गैरे मियाँ नहीं हैं। क्या तुम नहीं जानतीं, रईसों के सब ठाठ निराले होते हैं!" "लेकिन मेरा दिल कहता है, कुछ भेद ज़रूर है, और तुम्हारी आँखें भी यही कह रही हैं बहिन।” "भेद ही कुछ होगा तो क्या तुमसे छिपा रहेगा? आज नहीं तो कल वह खुलेगा ही।" “आज ही वह खुल जाए तो क्या हर्ज है।" “सौदा तो खरीद चुकी हो, अब खोटा होने पर क्या अदल-बदल करोगी?" “अदल-बदल क्यों करूँगी?" “खोटे को भी सहेजकर उठा रखोगी?" “नहीं तो क्या करूँगी, फेंक दूंगी? खोटा सिक्का बाज़ार में तो चलेगा नहीं। फिर बड़ी बहिन को भी तो देख रही हूँ।" "बड़ी बहिन कौन?" "तुम।" “मुझमें क्या देखा बहिन?" “कि तुमने भी उसे फेंका नहीं, सहेजकर रखा है।" “कमसिन तो हो बानू, अल्लाह रक्खे, पर ज़हीन हो। लेकिन यह ज़हन, यह हुस्न, यह दिल लेकर आई क्यों? मैंने सुना है कि ग्रेजुएट हो। इतना पढ़कर भी अपने को न रख सकीं?" “ग्रेजुएट होने ही से क्या होता है बहिन! औरत जो हूँ, फिर बड़े अब्बा!” “उन्होंने इस चम्पे की कली को ऊँट की दुम से बाँध दिया।" “ऐसा न कहो बहिन, बड़े अब्बा मामूली आदमी नहीं।" “लेकिन बहिन, तुम्हें यहाँ देखकर तो छाती फटती है।" "क्या सौतिया डाह है?" हुस्न ने हँसकर कहा। "तुमसे सौतिया डाह करूँगी? ऐसी सुहागिन नहीं हूँ बहिन।" "खुदा जाने तुम क्या कहना चाहती हो, अब कह ही दो।" "सुन सकोगी?" "बखूबी।” "और दिल जो पाश-पाश हो जाएगा।" "नहीं होगा बहिन।” “ऐसा पत्थर का दिल लेकर आई हो?" “दिल साथ लाई ही नहीं हूँ, हिफाज़त से वहीं छोड़ आई हूँ।”