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शादी खत्म हो गई और रुखसत की तैयारी हुई। नवाब वज़ीर अली खाँ ने पाँच लाख का मेहर बाँधा और नवाब मुश्ताक अहमद ने अपनी अवशिष्ट समूची जायदाद दहेज़ में दे दी। सिर्फ रंगमहल अपने लिए रख लिया।

मेहमान विदा होने लगे। डाक्टर और उनकी पत्नी शादी में सम्मिलित होते रहे। ज्यों-ज्यों विदाई की घड़ी नज़दीक आती जाती, इस्रबानू की बेचैनी बढ़ती जाती थी। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि कहीं मेरा धैर्य जवाब न दे जाए, मेरी छाती दु:ख से न फट जाए।

जिस दिन उसे जाना था उससे एक दिन पूर्व उसने अरुणा को एक पुर्जा लिखा। पुर्जे में सिर्फ एक वाक्य था, “बहिन, आज तुम्हारे यहाँ मेरा न्यौता है, मुन्तज़िर बैठी हूँ, कब बुलाओगी?”

पुर्जा पढ़कर अरुणा को हँसी आ गई, पर डाक्टर का मुँह सूख गया। अरुणा ने कहा, “यह क्या, बानू माँगकर दावत ले रही है?" डाक्टर ने भर्राए स्वर में कहा, “चलो, हम लोग कहीं बाहर चलें, कहला दें कि घर पर नहीं हैं।"

“वाह, ऐसा भी कहीं होता है! हमें खुद ही उन्हें दावत देनी चाहिए थी।” और वह व्यस्त भाव से दावत की व्यवस्था में जुट गई। डाक्टर सूखा मुँह, सूखा कंठ, सूखा प्राण लिए बाहर चले आए।

6

अरुणा ने बहुत-से व्यंजन बना डाले थे। फिर भी वह व्यस्त भाव से और बनाए चली जा रही थी। हुस्नबानू चौके से बाहर एक कालीन पर बैठी अरुणा का हस्त कौशल देख रही थी और बात भी कर रही थी। अन्त में उसने कहा, “अब बहुत बना चुकी भाभी, और कितना बनाओगी, उठो। मैं अब भूख बर्दाश्त नहीं कर सकती। उठो, उठो, नहीं तो मैं आकर छूती हूँ; तुम्हारा सब चौका खराब कर दूंगी!"

अरुणा ने हँसती आँखें उठाकर देखा। आँखें तो इस वक्त बानू की भी हँस रही थीं-वे फूली हुई अवश्य थीं। अरुणा ने उसके 'भाभी' सम्बोधन से आप्यायित होकर कहा, 'बस, ज़रा-सा और है।"

“नहीं, नहीं, बस उठो।”

"अच्छा, एक यह चीज़ और, मेरी रानी, ज़रा ठहरो!"

बानू ने हँसकर कहा:

"तुम्हारा ‘रानी’ कहना मुझे बहुत भाया भाभी!"

“और तुम्हारे 'भाभी' कहने से तो मैं निहाल हो गई!"

अरुणा चौका छोड़कर उठी, हुस्नबानू के लिए उसने खाना परोसा और कहा, “खाओ रानीजी, गरीब का रूखा-सूखा।"

“ऐसे कैसे खाऊँ भाभी, तुम भी बैठो। लाओ अपनी थाली।"

“मैं ज़रा ठहरकर खा लूंगी।"