कहकर कुछ दूसरा बन्दोबस्त करूँ।"
“नहीं बानू, ऐसा नहीं हो सकता। तुम जैसा कहोगी मैं वही करूँगा, और कलेजे पर पत्थर रखकर मैं तुम्हें भूल जाऊँगा, मैं समझूगा एक सपना देखा था झूठा सपना।"
"नहीं भाईजान, ऐसा तुम न कर पाओगे। मैं तो मुजस्सम तुम्हारे सामने हूँ। और जब जो ताल्लुकात मेरे-तुम्हारे बीच पैदा हुए हैं, ताज़ीस्त रहेंगे। और जब तक हम दोनों ज़िन्दा हैं, एक-दूसरे को भूल न सकेंगे। हम शायद बहुत बार मिलेंगे, बहुत बार हँसेंगे, बहुत बार एक-दूसरे से टकराकर एक-दूसरे को चोट पहुँचाएँगे—वह चोट हमें चुपचाप सहनी पड़ेगी।
वह आग जो किस्मत ने हमारे कलेजे में जला दी है, भीतर ही जलती रहेगी। उसका धुआँ तक हमें भीतर ही भीतर निगलना पड़ेगा भाई जान!"
बहुत देर तक दोनों चुप रहे। अन्त में डाक्टर ने सिर उठाकर कहा, “तो बानू, ऐसा ही हो।"
"लेकिन अब भी—बानू?"
"नहीं—बहिन!”
डाक्टर ने झुककर हुस्नबानू के पैर छू लिए। आँखों की पुतलियों को आँसुओं में तैराकर हुस्नबानू ने कहा:
“यह क्या किया?"
"हम हिन्दू हमेशा बड़ी बहिन के पैर पूजते हैं, इसी से।"
"लेकिन मैं तो तुमसे उम्र में बहुत छोटी हूँ।"
“तो इससे क्या? तुम हर तरह मुझसे बहुत बड़ी हो।
डाक्टर तेज़ी से चले गए। हुस्नबानू देर तक बैठी रोती रही।
5
अरुणादेवी पर भी यह रहस्य प्रकट हुए बिना न रहा। उनका शरीर थरथराने लगा, और वे बीमार हो गईं। परन्तु पति से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा, न शिकायत की। वे घुलने लगीं। मंसूरी के स्वास्थ्यप्रद जलवायु ने उन्हें कुछ भी लाभ न पहुँचाया। हुस्नबानू ने शिशु को जन्म देकर अरुणा के सुपुर्द कर दिया। इससे उन पर दुहरा भार पड़ गया। पहले जिस भावना से अभिभूत हो वे इस काम में योग देने को तैयार हो गई थीं, अब उनमें वह उत्साह नहीं रहा। बालक बहुत सुन्दर, जैसे हीरे की कनी हो, ऐसा था। पर उस निरीह निर्दोष शिशु के प्रति भी उनके मन में एक विरक्ति के भाव उदय हो गए। इन सब बातों को उन्होंने बहुत छिपाया, फिर भी वे छिपी न रहीं —न हुस्नबानू की नज़रों से, न डाक्टर की नज़रों से। परन्तु हुस्नबानू ने इस सम्बन्ध में उनसे कुछ बात न कही। न उन्होंने डाक्टर ही से इस सम्बन्ध में एक शब्द कहा। जब नवाब ने आधी जायदाद बच्चे को दे दी, तब भी अरुणा मन का बोझ घटा नहीं। उनका वेदना वैकल्य और भी बढ़ गया।
परन्तु हुस्नबानू की प्रभावशाली बातचीत से डाक्टर का मन एक नवीन बल प्राप्त