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जानते हो, यह मैं किसी हालत में बर्दाश्त नहीं कर सकूँगी।"

"तो तुम, बानू...” डाक्टर के मुँह से बात पूरी निकली नहीं।

“हाँ, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूँ, यह सच है। तुम मेरी आँखों में यह न देख पाते तो शायद अपनी यह हालत न बना लेते। मगर तुमने मेरी यह जुर्रत नहीं देखी कि मैं प्यार, और प्यार से भी ज्यादा लख्ते-जिगर तक की परवाह नहीं करती। मैं पहले अपने फर्ज़ को देखती हूँ।”

"लेकिन..."

"तुम जो कुछ कहना चाहते हो वह मैं जानती हूँ। जबान खोलने से क्या फायदा? मैं तो तुम्हारे रोम-रोम की हरकत में, तुम्हारी नज़रों में, तुम्हारी लम्बी-लम्बी साँसों में, सूखे होंठों में तुम्हारी सब बातें पढ़ चुकी। नादान नहीं हूँ भाईजान, लेकिन हद से आगे कदम रखना अच्छा न होगा, सिर्फ तुम्हारी ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी।"

“मुझे कुछ कह लेने दो बानू।"

“कहना चाहते हो तो कहो, लेकिन उससे फायदा कुछ न होगा। मैं जानती हूं कि तुम जो कुछ कहोगे, उसका सब मिलाकर सार यही होगा कि तुम मेरे बिना ज़िन्दा नहीं रह सकते। सो इसका जवाब मैं तुम्हें वही देती हूँ, जो मैंने हबीब साहब को दिया था: यानी, अगर जिन्दा रहोगे, खुश रहोगे, मुझ पर अपनी बरकत की नज़र डालोगे, तो मैं तुम्हें फरिश्ता समझकर परस्तिश करूँगी। तुम्हारी मूरत मेरी आँखों पर रहेगी। और अगर मर मिटोगे, तो मैं तुम्हें एक नाचीज़, हकीर, अदना इन्सान समझूगी। तब सिर्फ ज़रा-सी हमदर्दी ही मेरे दिल में तुम्हारे लिए रह जाएगी, और कुछ नहीं।'

"तो बानू, क्या प्यार की यही सज़ा है?"

“सज़ा है कि इनाम, यह तो समझने की बात है। मगर मैं तो यह समझने लगी हूँ कि प्यार की सही सूरत तो जुदाई ही है, मिलन नहीं वह जुदाई, जहाँ प्यार की भूख रोम-रोम में रमकर जिस्म को प्यार से सराबोर कर देती है। इतने जतन से जो लज़ीज़ खाना तैयार किया जाता है, उसे भरपेट खा चुकने पर जो जूठन बच रहती है, उस पर तो नफरत और हिकारत की नज़र डालना कोई पसन्द नहीं करता। उसे तो कुत्तों को खिलाकर बर्तनों को जल्द से जल्द धोकर साफ कर डालना ही सब सलीके-वाले लोग पसन्द करते हैं। प्यार तो पत्थर का बुत है, जिसे हिन्दू पूजते हैं। भीतर-बाहर वह सब तरफ पत्थर है—ठोस, वहाँ अहसास कहाँ? इसी से वह प्यार सब भूख प्यास से पाक-साफ होकर भक्ति बन जाता है। इस भक्ति से किसी का पेट नहीं भरता। कभी ऊब नहीं पैदा होती। वह इतना पाक हो जाता है कि सिवा पूजा करने के दूसरी किसी बात का ख्याल दिमाग में लाया ही नहीं जा सकता।"

डाक्टर की आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे। उसने कहा:

"मानता हूँ बानू, मैं एक कमज़ोर आदमी हूँ और तुम बेशक इन्सान से परे कोई शय हो; फिर भी मैं शायद बर्बाद हो चुका। दुनिया के किसी काम का न रहा!"

"तब तो बड़े अब्बा ने तुम्हें ऐसा नाजुक काम सौंपकर बड़ी गलती की। तुम न सिर्फ अपने ही को, मेरे लड़के को, अब्बा की इज़्ज़त को और अरुणा बहिन की ज़िन्दगी को बर्बाद करोगे। कहो, क्या तुम अपनी कमज़ोरी को दूर नहीं कर सकते? अब भी वक्त है, मैं अब्बा से