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हैं। बचपन ही से मैंने इन्हें अपना पुत्र समझा है। मेरे और बंसगोपालराय के बीच भेदभाव न था। हम लंगोटिया यार थे। मैंने ही हठ करके इन्हें विलायत भेजा था। मैंने ही इनकी शिक्षा का सारा खर्च बर्दाश्त किया। अब, जब डाक्टर अमृतराय को पुत्र-लाभ हुआ है, और इस खुशी में शामिल होने के लिए बंसगोपाल ज़िन्दा नहीं रहे, मैं उनकी जगह उनके हिस्से की खुशी जाहिर करता हूँ और मेरी यह खुशी सिर्फ ऊपरी ही नहीं है, दिली है। इसका अभी मैं एक सबूत आपको दूंगा। बंसगोपाल ज़िन्दा होते तो वे भी यही करते।"

इतना कहकर नवाब क्षण-भर को रुके। एक नज़र उन्होंने उपस्थित लोगों पर डाली। शायद अपने खिसकते हुए हृदय को बल दिया। हुस्नबानू की स्मृति पर पर्दा डाला, आँखों के उमड़ते आँसुओं को भीतर ही जज़्ब किया और आवाज़ की कँपकँपी को संभाला। फिर धीर स्थिर स्वर में कहा, “आप सब जानते हैं, मेरी कोई औलाद नहीं। मेरी पोती हुस्नबानू ही एक मेरा सहारा है। आज हुस्नबानू के बाप छोटे नवाब ज़िन्दा होते, तो वे भी अमृतराय के बराबर ही होते; मगर खुदा ने उन्हें अपनी खिदमत में ले लिया। शुक्र है उसका। आप देखते हैं, मैं सुबह का चिराग हूँ। मेरा दिल प्यार से भरपूर है, ज़िन्दगी-भर मैंने अपने फर्ज़ को अव्वल दर्जा दिया है; आज भी मेरा वही ख्याल है।

"दुनिया के सामने दोस्ती की मिसाल पेश करने का इरादा नहीं रखता, न हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का कोई दिखावा कर रहा हूँ; मैं तो सिर्फ अपने दिली प्यार, ज़ज्बे और फर्ज़ को देख रहा हूँ। और मैं आज अपनी तमाम जायदाद के दो हिस्से करता हूँ। आधी जायदाद मैं अपनी पोती शाहज़ादी हुस्नबानू को देता हूँ और आधी दोस्त के लड़के, इस नन्हे-से फरिश्ते को। आप आमीन कहिए।"

लोग सकते की हालत में आ गए। इतना बड़ा दान, दोस्ती का इतना बड़ा पुरस्कार उन्होंने सुना भी न था। नवाब ने काँपते हाथों से दान-पत्र जेब से निकालकर हुस्नबानू की ओर देखा जो वहाँ स्त्रियों के बीच बैठी थी। नवाब की आवाज़ काँपी। मगर उन्होंने कहा, "बेटी हुस्न, खड़ी हो जाओ और दुनिया के एक पाक काम को अंजाम देने में अपने इस बूढ़े अब्बा की मदद करो। यह कवाला लो और अपने मुबारक हाथों से उस नन्हें फरिश्ते के हाथ में दे दो।"

सैकड़ों आँखें उसी ओर उठ गईं। हुस्नबानू उठी और उसने अकम्पित हाथों से कवाला लेकर अरुणादेवी की गोद में लेटे हुए बालक के हाथों में दे दिया। परन्तु इसके बाद ही उसके पैर लड़खड़ा गए। बूढ़े नवाब ने भाँपकर उसे संभाला, वे उसे भीतर ले गए। भीतर जाते ही हुस्नबानू मूर्छित होकर धरती पर गिर गई।

पर किसी ने भी इस मर्मपीड़िता, बाणविद्धा हरिणी की वेदना को नहीं जाना। बाहर शहनाई बज रही थी, डाक्टर पर मुबारकवादियों की वर्षा हो रही थी, हर्षोन्माद में लोग भाँति-भाँति की बातें कह रहे थे। कोई आश्चर्यमुद्रा से कपार पर आँखें चढ़ाकर कह रहे थे, "अभूतपूर्व है, अद्भुत! ऐसी दोस्ती का निभाव, ऐसा त्याग, ऐसा दान देखा नहीं, सुना भी नहीं!"

खाने-पीने की धूमधाम चली। इत्र-पान से सत्कृत होकर आगत-समागत सब अपने घर गए। केवल डाक्टर दम्पती एक असहनीय भार-सा अपने पर लादकर चुपचाप अपने घर लौटे।