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"शुक्रिया, मेरी अपनी एक आरजू है।"

“फर्माइए।"

"मेरे बच्चे को, चाहे वह लड़का हो या लड़की कभी भी उसकी माँ का नाम न बताइए—न बाप का। मुझे कभी-कभी उसे देख लेने और प्यार करने की इजाज़त दीजिए।

अल्लाह आपका भला करेगा।"

“ऐसा ही होगा शाहज़ादी साहिबा।"

“तो बात खत्म हुई। दरवाज़ा खोल दीजिए और बड़े अब्बा को बुला लीजिए।" उसने बुर्का पहन लिया।

नवाब के भीतर आने पर डाक्टर ने कहा, “आपका हुक्म बजा लाऊँगा, लेकिन मेरी दो शर्ते हैं—एक मेरी स्त्री को आप राज़ी कर लें, दूसरे वह सौदा-सुल्फ रहने दें। ज़मीन-ज़ायदाद की बात छोड़ दें।"

“खैर, तो ये दोनों बातें आप मुझी पर छोड़ दीजिए। मैं कल सुबह आपकी बीवी से बात करने आऊँगा।"

वह उठा। उसी भाँति डाक्टर को अभिवादन किया और बानू के कन्धे का सहारा लेकर धीरे-धीरे डिस्पेंसरी से बाहर हो गया।

3

डाक्टर की पत्नी का नाम था अरुणा, उसे राज़ी करने में नवाब को कठिनाई नहीं हुई–सन्तान की प्रच्छन्न लालसा तथा स्त्री-जाति पर दया-भावना से अभिभूत होकर उसने स्वीकृति दे दी। अतुल सम्पदा पर भी उसका ध्यान गया। डाक्टर यद्यपि कहते थे कि वे सौदा नहीं चाहते, परन्तु यह ऐसा सौदा न था जो आसानी से अपने प्रलोभन का प्रभाव जाने दे। फिर हुस्नबानू को देखकर डाक्टर जिस प्रकार प्रभावित हो गया था, उसी भाँति डाक्टर की पत्नी भी प्रभावित हुई।

इस प्रकार सब बातें ठीक-ठीक तय हो गईं और डाक्टर सपत्नीक नवाब के साथ मसूरी चले आए। यथा समय हुस्नबानू ने पुत्र को जन्म दिया और प्यार और खून का सदमा खाकर उसने उसे आँसुओं से आँखें भरकर डाक्टर की पत्नी को दिया। सारे ही औपचारिक बन्दोबस्त हो गए और एक दिन हुस्नबानू के उस कलेजे के टुकड़े को अपनी बिना दूध की छाती से लगाकर अरुणादेवी दिल्ली चली आईं। दु:ख व शोक से असहाय हुस्नबानू मूर्च्छित हो गई।

दिल्ली में आकर डाक्टर अमृतराय ने धूमधाम से पुत्र-जन्मोत्सव मनाया। हिन्दू-संस्कार किए और बालक का नाम रखा—दिलीपकुमार राय।

कुछ दिन बाद नवाब ने दिल्ली आकर अपने घर एक जश्न किया। उसमें सभी परिचित हिन्दू-मुसलमान मित्र-परिजनों को बुला, सबके सामने डाक्टर, उनकी पत्नी और पुत्र का अभिनन्दन किया। नवाब ने कहा, “ये डाक्टर अमृतराय मेरे दोस्त बंसगोपालराय के पुत्र