रायसाहब की चरण-धूलि ली, डाक्टर के चरणों में माथा टेका।
एक चमत्कारिक नाटक देखते-देखते हो गया। बानू और अरुणा के अंकपाश में बँधी हुई माया घर में चली गई। डाक्टर दिलीप को छाती से लगाए ड्राइंगरूम में घुस गए। गाड़ी मैं लदा सामान उतार लिया गया। रायसाहब कुछ क्षण स्तब्ध खड़े रहे। फिर उन्होंने आँखों की कोर से आँसू पोंछकर पास खड़े सुशील से कहा, "देखो बेटा, एक अच्छा-सा बैंड तो अभी लेकर आओ, और तुम शिशिर, ज़रा मेरे साथ चलो।" वे कन्धा पकड़कर एक प्रकार से उसे घसीटते हुए, उसी गाड़ी में जा बैठे। कोचवान को हुक्म दिया, "चलो, ज़रा चाँदनी चौक।"
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और उस दिन की संध्या उस दिन के प्रभात से कुछ दूसरे ही ढंग की थी। सारा घर रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओं से सज रहा था। रंगीन बत्तियों के प्रकाश से कोठी जगमगा रही थी। बैंड बज रहा था, शहनाई तान अलाप रही थी, आगत मेहमान भड़कीली पोशाक पहने हँसते-हँसते जा रहे थे, मुख्य द्वार पर डाक्टर अमृतराय और अरुणादेवी आगत- समागतों का स्वागत कर रहे थे। लोग बधाइयाँ दे रहे थे; मिठाइयों के, मेवों के थाल घर में आते जा रहे थे। रायसाहब एक आरामकुर्सी पर पड़े सिगार का धुआँ उड़ा रहे थे, और सामने यज्ञदेवी पर वेदपाठ और मंगलगान के साथ दिलीप कुमार का मायादेवी के साथ शुभ विवाह हो रहा था। बानू आगत मेहमानों के बीच बैठी, वर-वधू की जोड़ी की बड़ाई की चर्चा में भाग ले रही थी।