सूनी थी। एक परम वीतराग जितात्मा योगी की भाँति वह अपने ही में गूढ़ बनी इस पार्थक्य में पुत्रवती होने का जैसे मूलमन्त्र पा रही थी किन्तु हर्षविषाद से दूर–बहुत दूर। इस बार उसने स्थिर कण्ठ में कहा, "दिलीप!"
दिलीप ने कहा, "माँ!"
"दिलीप"–इस एक 'दिलीप' के उच्चारण ही में बानू ने सारा मातृ-भाव उड़ेल दिया।
दिलीप ने पहली बार आँख उठाकर बानू का मुँह देखा। उन्मादिनी दृष्टि से। और उसकी वह दृष्टि उलझ गई बानू की पलकों पर, जहाँ वेदना के सातों समुद्रों में ज्वार आ रहा था। उसके दोनों काँपते हुए हाथ ऊपर को उठे। बानू के मुँह को उसने जैसे अपनी अंजली में भर लिया, जैसे शतदल श्वेत कमल झरझर झरते हुए जल सहित वह अंजलि में भर लाया हो।
उसने उसी भाँति बानू की आँखों में आँखें उलझाकर, उसी भाँति उस मुख को अंजलि में भरे हुए कहा, "माँ!"
"बेटे", बानू के होंठ फूट पड़े, "तूने अपनी बदनसीब गुनहगार माँ की सूनी गोद भर दी, बड़ा सवाब का काम किया बेटे, खुदा तेरी उम्रदराज़ करे!"
"लेकिन माँ, क्या तुमने इस अधम को माफ कर दिया? इसे अपना लिया?"
"मैंने कभी यह उम्मीद न की थी कि तू मुझे माँ की इज़्ज़त और ज़िन्दगी देगा। मैं मरते दम तक तुझसे दूर–अनजान रहने की ठान चुकी थी।"
"क्यों, इस अधम पर इतना अविश्वास किया माँ, एक बार मुझे बुलाया क्यों नहीं?"
"क्या मैं तेरे साथ माँ की तरह पेश आई? क्या मैंने तेरे साथ संगदिली में कोई कसर रखी? दुनिया की कौन-सी माँ इस तरह अपने कलेजे के टुकड़े को दूसरे के हाथों देकर मुँह फेर सकती है?"
"लेकिन माँ, मैंने तुम्हारा तप भी देख लिया। तुम्हारी माँ की आत्मा भी देख ली। अब आओ चलें, दुनिया से दूर, जहाँ कोई हमारी जान-पहचान का न हो।"
"यह क्यों बेटे?"
"तो तुम्हीं कहो, इस दुनिया में मेरे खड़े होने की जगह अब कहाँ है?"
"यह बात तो अरुणा बहिन बता सकती हैं।"
"अब मैं क्या उन्हें मुँह दिखा सकता हूँ?"
"क्यों, क्या वे तेरी माँ नहीं हैं बेटे?"
"माँ हैं, लेकिन..."
"माँ हैं तो लेकिन क्या?"
"कैसे कहूँ, अब मैं बहुत-सी बातें समझ गया हूँ माँ। उन सबकी भलाई भी इसी में है कि हम लोग यहाँ से चुपचाप चले जाएँ। उन सब बातों को आप नहीं समझ सकतीं, मैं समझता हूँ, माँ हमें यहाँ से जाना होगा।"
"लेकिन दिलीप, तुझे मैं एक गोद से छीनकर ले जाने की ताब नहीं रखती, मुझसे यह न हो सकेगा।"
"तब?"
"अरुणा बहिन ही की हमें पनाह लेनी होगी, वही हमें राह दिखा सकती हैं।"