मौन, निस्पन्द उसे उसी भाँति अंक में भरे बैठी उसके मस्तक पर हाथ फेरती रही बहुत देर तक। फिर आहिस्ता से उसका सिर तकिये पर रखकर चुपचाप उठकर कमरे से बाहर निकल गईं।
दिलीप उसी भाँति पड़ा रहा, निश्चल, निर्वाक्, निस्पन्द, एक शिलाखण्ड के समान। अरुणादेवी फिर आईं। डाक्टर आए, सुशील आया, शिशिर आया, करुणा आई, माया आई, रायसाहब आए और चले गए। किसी का कोई शब्द उसने ग्रहण नहीं किया। दिन बीता, रात बीती। फिर दिन और रात, फिर दिन और रात। लेकिन दिलीप उसी तरह नीरव, निस्पन्द, मूक, मौन, पत्थर की शिला की भाँति पड़ा रहा।
घर में अब सब कोई सच्ची बातें जान गया था। सबके मन चिन्ता और उद्वेग से भरे हुए, दर्द से कराहते-से हो रहे थे। क्या किया जाए, दिलीप क्या प्राण दे देगा? वह तेजस्वी, मेधावी, उद्गीव तरुण है, भावुक है, रक्त उसका गर्म है–यह चोट क्या प्राणान्त कर देगी। रोते-रोते माया की आँखें फूलकर गुड़हल का फूल हो गई थीं। करुणा उसे अंक में भरे, "भाभी-भाभी"–बीच में इस प्रकार भरे स्वर में पुकार उठती जैसे उसका गला काटा जा रहा हो। परन्तु माया भी वैसी ही मूक, मौन, निस्पन्द पड़ी थी।
डाक्टर और रायसाहब परेशान कभी इधर और कभी उधर घर में चक्कर लगा रहे थे। बहुत बार वह दिलीप के कमरे में जा चुके थे, बहुत कुछ उससे कह चुके थे, मगर बेकार।
सिर्फ बानू दिलीप के पास नहीं गई। उसकी आँखों में आँसू भी नहीं आए। अरुणा ने बहुत बार उसकी मिन्नतें कीं, बहुत कहा, फिर एक बार वह दिलीप के पास जाए–परन्तु बानू ने हर बार 'नहीं' कह दिया। वह नहीं गई। अपने कमरे में अवाक् बैठी रही।
तीन दिन बीत गए। एक विचित्र विषादपूर्ण सन्नाटा घर में छाया था। प्रभात का समय। अरुणादेवी बानू के कमरे में जाकर चुपचाप उसके निकट खड़ी हो गईं। बहुत देर तक खड़ी रहीं। बानू ने उनकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं, कुछ कहा भी नहीं। अरुणादेवी चुपचाप बानू का सफेद बर्फ के समान रक्तहीन चेहरा, जिस पर झुकी हुई पलकें और सम्पुटित ओष्ठ वेदना और निराशा की चरम घोषणा कर रहे थे–ताकती खड़ी रहीं। एक शब्द भी उनके मुँह में नहीं निकला। एकाएक उन्होंने देखा, एक छायामूर्ति ने कमरे में प्रवेश किया। दिलीप ही था। शराबी की तरह लड़खड़ाता, डग भरता हुआ वह 'माँ' कहकर बानू के सामने आ धरती पर गिर गया। बानू के दोनों चरणों पर उसने अपने सूखे, शीतल होंठ रख दिए।
बानू ने अपने दुबले-पतले काँपते हाथों से उसका सिर उठाकर छाती से लगा लिया। अब माता और पुत्र एक थे–नीरव, निस्पन्द, मूक, निश्चल, पत्थर की शिला की भाँति।
अरुणादेवी चुपचाप कमरे से बाहर हो गईं।
बहुत देर तक दोनों इसी प्रकार बैठे रहे। बानू के शब्द जैसे होंठों से निकलते-निकलते होंठों ही में समा गए। बड़ी कठिनाई से वह कह पाई "दिलीप!"
"माँ" कहकर दिलीप ने बानू को अपने अंकपाश में बाँध लिया। अब उसकी आँखों का स्रोत फूटा और गंगा-जमुना की धार वहाँ से बह चली। यह एक तरुण का रुदन था। जीवन और तेज से भरपूर तरुण का। जिसकी दुनिया ही बदल चुकी थी, मनसूबे ढह चुके थे, आदर्श छिन्न-भिन्न हो चुके थे। जो अब अपने ही लिए पराया था। परन्तु बानू की आँखें तो अभी भी