"तुम्हारी आँखों में मैंने अपने को ही बैठे देखा था।"
"सच कहती हो प्रिये, सच कहती हो। जब तुमने माँ की वह सौगात घड़ी मेरे हाथ पर रखी और उस समय जो तुम्हारी उँगली की पोर ने ज़रा-सा मेरा स्पर्श किया, तभी, उस क्षण तुम बरबस मेरी आँखों में बस गईं। और मैं उन आँखों में आँसुओं से तुम्हें अर्घ्य देता हुआ आज तक भटकता रहा हूँ।" उसने फिर खींचकर माया को अपने वक्ष पर डाल लिया।
माया ने दिलीप के वक्ष को आँसुओं से भिगो दिया। उसने काँपते स्वर से कहा, "मैं भी तभी से यहीं तुम्हारी आँखों में आबद्ध रह गई। केवल मेरी देह वहाँ जलती-भुनती रही।"
"ओह, यह देह का पार्थक्य भी कितना दुखदायी था!" कह दिलीप ने माया को इस प्रकार अपने में समेट लिया, जैसे अब वह देह के पार्थक्य को स्वीकार ही नहीं करना चाहता। दोनों के नेत्रों से बहुत देर तक मूक-निर्वाक् अश्रुकण बहते रहे। बड़ी देर बाद दिलीप ने व्याकुल होकर कहा, "अब बाबूजी को मैं कैसे मुँह दिखाऊँगा, कहो तो माया?"
"परसों वे आ रहे हैं।
"सच?"
"उन्हें जाने में बहुत कष्ट हुआ। बहुत ज़रूरी केस था–जाना पड़ा। पर चलते-चलते कह गए थे मुझे कि मैं तुम्हें एक पल को भी अकेला न छोडूं। और जब वे जा रहे थे, उनकी आँखें आँसुओं से धुंधली हो रही थीं, मैंने तो बाबूजी की आँखों में अपने आज तक के जीवन में सिर्फ उसी दिन आँसू देखे थे।"
"मुझ अधम को वे इतना प्यार करते हैं! मुझे तुम बताओ माया, मैं क्या करूँ? मैं तो उनकी तरफ आँख उठाकर भी न देख सकूँगा।"
कुछ देर माया निस्पन्द रही। फिर उसने कहा, "अब आराम करो। इन पागलपन की बातों को दिमाग से निकाल दो। जो अपने हैं, वे दो नहीं होते। उनके लिए उद्विग्न होने की ज़रूरत नहीं। बाबूजी ने तो उसी दिन तुम्हें माफ कर दिया था, जब तुम्हारी चर्चा चलने पर मेरी आँख नीचे को झुक गई थीं। वे सब कुछ समझ गए थे। सब कुछ!" माया देर तक दिलीप के बालों में उँगलियाँ घुमाती रही। और दिलीप आँखें बन्द कर तन-मन से सुख- सागर में डूब गया।
40
अबोध शिशु की भाँति प्यार के अंक में भरकर, गीले पलकों से उसे निहारती हुई और अपना वरदहस्त उसके मस्तक पर फेरती हुई अरुणादेवी ने धीरे-धीरे सब कुछ दिलीप को बता दिया। उसके जीवन का इतिहास। कुछ भी छिपाकर न रखा। सब कुछ सुनकर दिलीप पत्थर की भाँति भावहीन, निश्चल, निश्चेष्ट होकर माँ की गोद में गिर गया। सब कुछ कह चुकने पर जब अरुणादेवी की वाणी मूक हो गई तो भी उसने कोई जवाब नहीं दिया। न वह रोया, न उत्तेजित हुआ, न हिला, न डुला। अरुणादेवी चाहती थी वह रो पड़े। आँसू बहाकर मन हल्का कर ले, पर ऐसा हुआ नहीं। फिर भी अरुणादेवी बहुत देर तक स्वयं भी मूक,