"लेकिन..."
"लेकिन क्या?"
"अब जाने भी दीजिए।"
"कहो माया, दिल की धुंडी खोल दो, जो मन में है कह दो, अब दुविधा में न रखो, यह जीवन अब तुम्हारे हाथ है, कह दो तुमने मुझे अपना लिया।"
"अपने मन से ही क्यों नहीं पूछ लेते?"
"मन से भी पूछ लूँगा। पहले..."
"लेकिन..."
"कहो, लेकिन क्या?"
"आपकी आँखें आपकी बातों का उपहास कर रही थीं उस दिन, इसी से..."
"ओह, तो तुमने सिर्फ मेरी बेवकूफी को ही नहीं, दर्द को भी जान लिया था!"
"जान लिया था तभी तो।"
"लेकिन बाबूजी?"
"वे समुद्र हैं, उनकी सहन-शक्ति की थाह नहीं है, फिर एक और बात भी तो है।"
"क्या?"
"अब उसे मत कहलाइए।"
"कहना तो पड़ेगा।"
"तब सुनिए। वे बेटी के बाप हैं, हिन्दू बेटी के। मान-अपमान का विचार करेंगे, तो बेटी को घर से धकेलेंगे कैसे? आप तो हिन्दू धर्मध्वजी हैं, इतना तो ज़रूर जानते होंगे कि हिन्दू की बेटी बाप की छाती पर सिल होती है।"
दिलीप हताश भाव से तकिये पर गिर गया। माया ने कहा, "क्या बहुत बुरा लगा?"
"ओह, समझ गया तुम्हारा गुस्सा। लेकिन माया, तुम्हारे गुस्से का तो मैं मूल्य चुका दूंगा, किन्तु बाबूजी से भी माफी दिला दो।"
"मेरे गुस्से का क्या मूल्य चुकाओगे भला?"
"अच्छी तरह चुका सकूँगा, उतनी पूँजी मेरे पास है!"
"तो बाबूजी से भी आप ही हिसाब बेबाक कर लेना।"
"नहीं, नहीं। उन्हें तो मैं मुँह नहीं दिखा सकता।"
"मुँह तो वे अच्छी तरह देख गए हैं। तीन दिन तक रात-रात-भर बैठे रहे हैं तुम्हारे सिराहने। किसी की न सुनी–न पिता की, न अम्माँ की, न मेरी।"
दिलीप आँखें फाड़कर माया को देखने लगा। उसने दोनों हाथों से अपने सिर के बाल नोच डाले। "हाय, हाय, और मैंने उनका अपमान किया था! मैं अपने को क्षमा नहीं करूँगा–किसी तरह नहीं करूँगा!"
"अब यह कैसा पागलपन है!"
"माया, मैं जान दे दूंगा।"
"खैर, अब ज़रा सो रहो।" वह उठी और कम्बल अच्छी तरह दिलीप की छाती पर सरका दिया। किन्तु दिलीप ने माया को खींचकर अपने ऊपर गिरा लिया। उसने कहा :
"माया, तुमने मेरी बेवकूफी और दर्द को देखा, और कुछ नहीं?"