पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/११८

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उल्लास से उसके नेत्र स्फीत हो गए। द्वार खुला और करुणा चाय की ट्रे लेकर भीतर आई। दिलीप का मन बुझ गया। उसने मुँह फेर लिया। करुणा ने चाय की ट्रे स्टूल पर रखकर कंधे पकड़कर दिलीप को तकिये के सहारे उकसाया। फिर पलंग पर बैठ एक टोस्ट पर मक्खन लगाने लगी। दिलीप ने कुढ़कर कहा, "मैं चाय नहीं पीऊँगा।"

"क्यों?"

"मेरा मन।"

"लेकिन मेरा मन है, पी लो। फलटक्लास चाय बनी है।

"मुझे नहीं पीनी, कह दिया।"

"तो मैं जाकर अम्माँ से कहती हूँ।"

"तू लाटसाहब से कह दे।"

"अच्छा, लाटसाहब को भेजती हूँ।"

दिलीप ने घूँसा तानकर कहा, "मार खाएगी तू।" करुणा हँसती हुई भाग गई।

थोड़ी देर में दरवाज़ा फिर खुला। दिलीप मुँह फेरकर सो रहा था। किन्तु उसके कानों ने सुना–कोई कह रहा है, "मुझे बुलाया था?"

दिलीप ने मुँह फेरकर देखा। वही मुँह, वही उँगलियाँ। उसने कहा, "क्या?"

"मुझे बुलाया था?"

"नहीं तो।"

"तब जाती हूँ।" वह मुड़ी, तो दिलीप ने हाथ बढ़ाकर उँगलियों की पोर का स्पर्श किया। जानेवाली रुक गई। रुककर पूछा, "क्या चाय बना दूं?"

"बना दो।"

वे ही उँगलियाँ चाय बनाने लगीं। तब उसने कहा, "करुणा चाय बना रही थी उसे भगा क्यों दिया?"

"मैंने कहाँ भगाया?"

"किसने कहा?"

"करुणा ने।"

"क्या?"

"कहा, तुम्हें बुलाते हैं।"

दिलीप के होंठों पर मुस्कान फैल गई। उसने कहा :

"समझा, लाटसाहब आप ही का नाम है।"

"लाटसाहब?"

"वह कह गई थी–लाटसाहब को भेजती हूँ।"

उस मुख पर भी मुस्कान फैल गई। जब वे उँगलियाँ प्याला देने लगीं, तो उँगलियों-सहित प्याला दिलीप ने अपने हाथों में ले लिया। प्याले से उँगलियाँ पृथक् न हो सकीं। एक हल्का-सा झटका पाकर वह पलंग पर बैठ गई। लाज से वह मुखर मुख एक बार फिर लाल हो उठा।

दिलीप ने उसे खींचकर अंक में भर लिया। उसने कहा, "क्या सचमुच माया, तुमने मुझे क्षमा कर दिया? मेरा अपराध तो छोटा न था। मैंने बाबूजी का अपमान किया था।"