पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/११०

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घुस गए और ज़बरदस्ती उनकी बन्दूकें छीन लाए। इनमें बहुतेरों ने पुलिस को फोन किए कि डाकू हमारी बन्दूकें छीन ले गए हैं। पर पुलिस किसकी सुनती थी! अब सत्रह बन्दूकों से लैस होकर दिलीप ने अपने तरुणों को हुक्म दिया कि प्रत्येक युवक पड़ोस के घरों से एक- एक तवा उठा लाकर छाती से बाँध ले। आनन-फानन में तवे छातियों पर बँध गए। छाती पर बाँधकर ये इक्कीस तरुण अपनी बन्दूकों को ले, जितना जहाँ गोला-बारूद मिला, कब्ज़ा कर पेड़ों और मकानों की आड़ में मोर्चे बनाकर फायर करने लगे। वह एक ऐसा जबर्दस्त प्रतिरोध था जिसने आततायियों को बाहर निकलने से रोक दिया। रात-भर दोनों ओर से गोलियाँ चलती रहीं। चार बजे सुबह मिलिटरी ने आकर अड्डे और बम और मशीनगनों से आक्रमण किया। और पहर दिन चढ़ते-चढ़ते अड्डे पर अधिकार कर लिया। दिल्ली के विद्रोहियों के ये दो प्रबल अड्डे थे। यों तीन दिन तक दिल्ली की गली-गली, कूचे-कूचे से मारकाट होती रही। पर मुसलमानों का बल टूट गया और वे भयभीत होकर भागने लगे। हिन्दुस्तान की विजय सपना हो गई। पाकिस्तान पहुँचना दूभर हो गया। गली- कूचों में लाशें सड़ने लगीं। सारा शहर दुर्गन्ध से भर उठा। सब व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। मुसलमान अपने बाल-बच्चों, परिजनों को तांगों पर, ठेलों पर, मोटरों पर, घोड़ों पर लादकर पंक्ति-पंक्ति उदास और भयभीत दृष्टि से दिल्ली और लालकिले पर हसरत की नज़र डालते हुए घर-बार छोड़कर हुमायूँ के मकबरे की ओर जा रहे थे। शहर में सिक्ख शरणार्थी और राष्ट्रीय संघ के तरुण बिफरे बाघ की भाँति सीना ऊँचा करके घूम रहे थे। दिल्ली ने सात सौ वर्षों के बाद ये दिन देखे थे। यह दिल्ली तो वास्तव में मुसलमानों की ही नगरी थी। यहाँ की भाषा, रंगत, अमीरी, नज़ाकत, शहरियत सभी कुछ मुसलमानों का था। सात सौ वर्ष तक हिन्दू अर्ध-दासता भोगते रहकर दिल्ली की चौखट पर माथा टेकते रहे थे। उसी दिल्ली को, वैसा ही भरा-पूरा गुलज़ार छोड़, उस पर हसरत की नज़र डालते हुए, उसकी सम्पन्न सड़कों पर सदा के गुलाम हिन्दुओं को शेर की तरह घूमते देखते हुए वे चले जा रहे थे। यह कालचक्र का परिवर्तन था, जो अभूतपूर्व था। 37 डाक्टर ने सूखे मुँह घबराए आकर अरुणा से कहा, “दिलीप रंगमहल में आग लगाने गया है, बहुत-से संघी गुण्डे उसके साथ हैं।" अरुणादेवी का मुँह भय से सफेद हो गया। उन्होंने कहा, “तो अब बानू का क्या होगा?" “मेरी समझ में नहीं आता, क्या किया जाए।' “तुम्हें खुद जाकर उन्हें यहाँ ले आना चाहिए था।" “मैंने बहुत कहा, पर उन्होंने किसी तरह आना स्वीकार नहीं किया।" “दिलीप को तुम समझाओ।" "बेकार है, उस पर खून सवार है। क्या मैंने उसे कम समझाया है? समझाने-बुझाने "