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जलेगा। केबिनट के हिन्दू वज़ीर मार डाले जाएंगे। यहाँ भी हिन्दू बालाओं पर बलात्कार होगा। नहीं, नहीं, मेरे रहते यह नहीं होगा।

दिलीप ने तुरन्त कहा, "खन्ना, तुम्हीं को सब भुगतना पड़ेगा भाई। जो कुछ करना है आज, अभी कर दो कल तो फिर इक्कीस है ही।" वह उठा बक्स के कागज़ में लपेटा हुआ एक बण्डल निकाला। उसे देते हुए कहा, "खूब होशियारी रखना। और अपने दाँव का कोई मौका चूकना नहीं। बस फतेहपुरी की मस्जिद पर, अँधेरा होते ही।" खन्ना ने बण्डल लिया और चुपचाप एक ओर चल दिया। दिलीप ने भी साइकिल पकड़ी। ढाई बज रहा था। तीन बजे उसे शरणार्थियों की विराट सभा में भाषण देना था। वह तीर की तरह सभा-स्थल की ओर भागा।

बहुत आदमी जमा हो चुके हैं। पर अभी मीटिंग का समय नहीं हुआ था। खबर थी, पुलिस मीटिंग न होने देगी। दिलीप ने समय की प्रतीक्षा न की। मंच पर खड़े होकर वह गरजा। वही पुर्जा उसके हाथ में था। भारतीय क्रान्ति के इतिहास में यह पहला ही भाषण था जब दिलीप ने हिन्दुओं को डाइरेक्ट ऐक्शन का मर्म समझाकर इस समय तत्क्षण 'करने और मरने' का सन्देश दिया। दिलीप का प्रत्येक शब्द आग का शोला था। सभा के स्त्री-पुरुष, तरुण-वृद्ध सभी का खून खौल उठा–संयम, धैर्य, व्यवस्था, कायदा कुछ भी नहीं सोचा गया। दाँत के बदले दाँत और नाक के बदले नाक, बस यही नारा बुलन्द हुआ। लोग पीड़ित थे, लुट चुके थे। किसी की आँखों के सामने उसकी बहुओं-बेटियों की लाज लूटी गई थी–किन्हीं को अपनी बेटियों को आग में भस्म करना पड़ा था। पीढ़ियों की कमाई, बाप-दादों का घर-द्वार, देश, कारबार वे छोड़कर खानाबदोशों की भाँति यहाँ आकर पड़े थे। उन्हें प्राणों का भला क्या मोह! जीवन की भला क्या चिन्ता! भले-बुरे का भला क्या ज्ञान! प्रचण्ड प्रलय की ज्वाला उनके हृदयों में जल उठी। किसी प्रकार की बाधा-व्यवस्था की आन मानने का वह वातावरण ही न था। शताब्दियों बाद खुले मंच पर मुँह खोलकर एक हिन्दू ने ललकारा था–"मारो!" जब तक पुलिस सतर्क हो तब तक तो लोग बिखर गए, जनून में भरे हुए। दिलीप सीधा स्टेशन पहुँचा। इस समय एक बलूची फौज की एक टुकड़ी शरणार्थियों की गाड़ी को लेकर जंक्शन पर पहुंची थी। सभास्थल से भागे हुए तरुणों ने समझा, दिल्ली पर हमला करने वह नई सेना आई है। आमना-सामना होते ही छुरेबाज़ी होने तथा गोलियाँ चलने लगीं। देखते-देखते लाशें तड़पने लगीं। इस समय दिल्ली स्टेशन एक भटियारखाना बना हुआ था। विशाल स्टेशन के प्लेटफार्म पर तिल धरने की जगह न थी। अनेक शरणार्थी अपना चौका-चूल्हा, चर्खा, खाट, पीढ़ी लिए जहाँ-तहाँ पड़े थे। दिलीप ने ज्यों ही गोली की आवाज़ सुनी, वह दो-दो, चार-चार छलाँगें भरता हुआ उधर जा पहुँचा। इसी समय सामने एक रेल-डिब्बे में ज़ोरों का भड़ाका हुआ। ऐसा मालूम हुआ जैसे अभी स्टेशन फट पड़ा। स्टेशन पर थोड़ी-सी हथियारबन्द फौज तैनात थी। वह अभी बलूचियों की ओर जा ही रही थी कि इस धड़ाके की ओर दौड़ पड़ी। डिब्बे को उसने घेर लिया। डिब्बे में 'अमरोहा-मुरादाबाद' जाने वाले मुसलमानों का एक गुट था। गुट के सामान से ढेर-छुरे, बम, पिस्तौल और विध्वंसक सामग्री मिली। सभी को गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु बहुतेरे आँख बचाकर भीड़ में मिल गए। इस समय तक स्टेशन पर छुरेबाज़ी और तलवार के खुले हाथ चल रहे थे। बीसों लाशें तड़प रही थीं। लोग जिधर