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"मैं क्या कहूँ?"

"तूने करुणा से कहा था?"

"वह हँसी की बात, उसने तुमसे जड़ दी, और तुमने सच मान ली, भोंदू हो तुम माँ!"

"हाँ, मैं भौंदूँ हूँ। पर तेरा मन हो तो मैं उनसे कहूँ–रायसाहब को वे पत्र लिखें?"

दिलीप बहुत चाहकर भी 'हाँ' न कह सका। जैसे एक समूचा पहाड़ ही उसकी छाती पर आ गिरा हो। वह लड़खड़ाता हुआ बाहर को चला गया। बिना ही जवाब दिए।

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इसी समय भारत में महान युगान्तरकारी परिवर्तन का समय आ पहुँचा। युद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्य का ढाँचा हिला डाला। और अब अंग्रेज़ पिटकर भारत से भागने की अपेक्षा राज़ी-खुशी भारत को छोड़ देने को तैयार हो गए। परन्तु इस काम में भी उनके मन में कुटिलता थी। जिस कूटनीति का आश्रय लेकर उन्होंने भारत की राष्ट्रीयता को खण्डित किया था, उसके अब भारत के तीन मुख्य दल थे। एक कांग्रेस का, जिसके नेता नेहरू थे; दूसरा अछूतों का, जिसके नेता अम्बेडकर थे; तीसरे मुसलमानों का, जिनके नेता जिन्ना थे।

निस्सन्देह कांग्रेस में मुसलमानों का अल्पमत था। जिन्ना ने कांग्रेस से पृथक् होकर मुस्लिम लीग अपना ली थी। और वही उनके मत से मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था थी। सरकार ने यह बात अपने गूढ़ मन्तव्यों के आधार पर स्वीकार कर ली थी। अछूतों के नेता अम्बेडकर अपना राग अलाप रहे थे। हिन्दू सभा इस समय भी एक लुंज-पुंज संस्था थी। उसमें जैसे कोई दम ही न था। कांग्रेस को नेहरू और पटेल जैसों का ही नहीं–गाँधीजी का भी बल मिला था। उनकी यातना-कथाओं ने कांग्रेस के प्रति देश-भर को कांग्रेस का भक्त बना दिया था। गाँधीजी ही नहीं, जवाहरलाल भी इस समय देवता की भाँति पूजे जा रहे थे।

इसी समय अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ना स्वीकार कर लिया और भारत के नेताओं के सामने प्रश्न रहा कि अंग्रेज़ अब भारत छोड़कर जाएँ तो भारत को किसे सौंपकर जाएँ। अछूतों की बात पीछे रहे–मुख्य तनाव कांग्रेस और मुस्लिम लीग में था। परन्तु मुस्लिम लीग जैसे मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था थी, वैसे कांग्रेस हिन्दुओं की संस्था न थी। हिन्दुओं का उसमें बहुमत तो था, परन्तु वह एक राष्ट्रीय संस्था थी। और उसमें मुसलमान भी थे। इस समय अबुलकलाम आज़ाद ही कांग्रेस के अध्यक्ष थे। कहने को कांग्रेस राष्ट्रीय सभा थी और वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी को एक राष्ट्र समसझती थी, परन्तु वास्तव में ये सब जातियों के प्रतिनिधि एक राष्ट्र के प्रतिनिधि न थे। खास कर मुसलमान, जो अब से कुछ साल पहले अल्पसंख्यक माने जाते थे, बराबर के हिस्सेदार बन रहे थे। वास्तव में इस्लाम केवल एक धर्म ही न था, धर्म की नींव पर खड़ा किया हुआ एक राजनीतिक और सामाजिक संगठन भी था। हिन्दूधर्म और हिन्दू भावनाओं से उसमें बड़ा भेद था। प्रारम्भ में गाँधीजी के उद्योग से 'हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई' की आवाज़ कुछ दिन